संधिकाल ( होली पर विशेष कहानी : पंकज सुबीर )

पूर्णिमा का पूरा चांद प्रकृति के साथ अपनी चांदनी के रंगों से होली खेल रहा है । पीली ज़र्द चांदनी पेड़ों पर, पहाड़ों पर, हर तरफ बरस रही है । ये भी अपने ही तरह की एक होली है, चंद्रमा और पृथ्वी की होली । क्या आकर्षण है पृथ्वी में, जो ये चंद्रमा न जाने कितने युगों से इसकी परिक्रमा कर रहा है । रूप बदल बदल कर पृथ्वी को आकर्षित करने का प्रयास करता है । कभी छिप जाता है कभी पूर्ण आकार में सामने आ जाता है । पृथ्वी कितने युगों से परीक्षा ले रही है अपने इस मूक प्रेमी की ।
''सुषमा क्या देख रही हो इस तरह आसमान में ?'' पडोस की बालकनी से स्वर आया तो सुषमा की तंद्रा टूटी ।
''कुछ नहीं भाभी, आज चाँद बहुत सुंदर लग रहा है'' सुषमा ने पड़ोस में रहने वाली मंजुला भाभी को उत्तर दिया ।
''वो तो लगेगा ही आज पूर्णिमा जो है, और वो भी फागुन की पूर्णिमा ।  दो ही तो पूर्णिमाएं होती है जब चांद सुंदर हो जाता है एक शरद की पूर्णिमा दूसरी फागुन की पूर्णिमा'' मंजुला भाभी स्थानीय कालेज में हिंदी साहित्य पढ़ाती हैं, उनकी बातों में भी साहित्य का पुट नार आता है । हिन्दी साहित्य से हमेशा लगाव रहा है सुषमा को, इसीलिए मंजुला भाभी से उसकी खूब पटती है ।
''और पता है ऐसा क्यों  होता है ? इसलिए, क्योंकि ये संधिकाल होते हैं। शरद ऋतु संधिकाल है वर्षा और ठंड का तो फागुन संधिकाल है गरमी और ठंड का । संधिकाल हमेशा से ही मोहक होता है, चाहे वो ऋतुओं का हो या फिर उम्र का हो ।'' मंजुला भाभी ने अपनी बात को और बढ़ाते हुए कहा ।
''बच्चे तो पढ़ रहे होंगे '' सुषमा ने उत्तर में कहा ।
''आज.........! और पढ़ाई ......! कल होली है, आज तो उनकी धींगामस्ती की रात है। छोटे वाले देवर के बच्चे भी आए गए हैं, अभी तो कॉलोनी की होलिका दहन वाली जगह पर गए हैं, कह रहे थे इस बार शहर की उत्सव समिति ने सबसे अच्छी तरह से सजाई हुई होली  को पुरुस्कार देने का कहा है । शाम से ही लगे हैं सजाने में, जाने क्या क्या निकाल कर ले जा रहे हैं घर से चुपचाप-चुपचाप।'' हंसते हुए कहा मंजुला भाभी ने ।
''अरे.....! पर चार दिन बाद तो बच्चों के पेपर हैं ना....?'' सुषमा ने आश्चर्य से पूछा । 
''हां है, तो ....? बच्चों ने उसकी भी तैयारी पूरी कर रखी है  । और फिर होली के लिए तो मैंने बस आज शाम से कल शाम तक की छुट्टी दी है । कल रात से फिर पढ़ाई में जुट जाऐंगे ।'' मंजुला भाभी ने उत्तर दिया ।
''पर भाभी मेन एगाम है, अभी आपको ऐसा नहीं करना था, एक साल होली नहीं भी मनाते तो क्या हो जाता'' सुषमा का आश्चर्य कम नहीं हुआ था ।
''तुमने वो शेर सुना है सुषमा 'बच्चों के  छोटे हाथों को चांद सितारे छूने दो, चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे ।' बात इस साल या उस साल की नहीं है बात उम्र  की है । होलियां तो बहुत आएँगी पर ये उम्र फिर नहीं आएगी । और फिर तुम याद करके तो देखो कि तुम्हारी स्मृति में कौन सी होली आज तक सुरक्षित है । वही ना जो तुमने स्कूल के दिनों में सहेलियों के साथ मनाई थी । वो धींगामस्ती, वो अल्हड़पन आज भी गुदगुदा जाता होगा तुम्हें ।'' मंजुला भाभी ने हंसते हुए कहा।
''अरे हमारी तो पूछो ही मत भाभी । मुहल्ले में दस बारह लड़कियों की हमारी टोली थी । और होली तो हमारे सर पर ऐसी चढ़ती थी कि मुहल्ले के लड़के भी घबरा कर भागते थे । शाम को जब माँ रंग छुड़ाने बैठतीं तो पूरे समय उनके प्रवचन चलते रहते थे ।''  हंसते हुए कहा सुषमा ने । 
''वही तो..... बात तो वही है। जब हमारा समय था तब हमने तो खूब आनंद उठा लिया, पर आज जब बच्चों की बारी है तो हम उनको रोक रहे हैं । हम स्वार्थी तो नहीं हो गए हैं ।'' गंभीरता के साथ कहा मंजुला भाभी ने ।
''पर आज जो काम्पटीशन है .........'' कुछ उलझन भरे अंदाज मे बात को बीच में ही छोड़ दिया सुषमा ने ।
''हाँ  है ना, वो तो हमेशा रहा है और आगे भी रहेगा । मैं उसे भी खारिज थोड़े ही कर रही हूँ  । आज बच्चे रात बारह बजे के आस पास होली जला कर वापस आ जाएँगे । सुबह जब पढ़ने उठते हैं तभी उठेंगे, पढ़ाई करने के बाद दस बजे से चार बजे तक का समय होली का है । वो भी सूखे और खुशबूदार रंगों से होली । उसकी भी मैंने तैयारी करके रखी है । हल्दी, चंदन का लेप, अच्छी सुंगधित गुलाल सब मंगा कर रखी है । घर के आंगन में खूब मस्ती करो, दोस्तों को भी बुला लो ।'' मंजुला भाभी ने कहा । सुषमा ने कुछ उत्तर नहीं दिया, उसके दिमाग में थोड़ी देर पहले राहुल द्वारा की जा रही मिन्नतें याद आ रही थीं ।
''प्लीा मम्मी मैंने आज की पढ़ाई तो पूरी कर ही ली है । कल रिवीजन कर लूंगा, जाने दो ना प्लीज । प्रॉमिस  मैं ग्यारह बजे तक ही वापस आ जाऊँगा ।'' गिड़गिड़ाते हुए कहा था राहुल ने ।
''नहीं बिल्कुल नहीं, पढ़ाई को तमाशा समझ रखा है क्या । एक साल होली पर नहीं जाओगे तो कुछ नहीं हो जाएगा अगले साल चले जाना ।'' झिड़कते हुए तेज स्वर में कहा था सुषमा ने ।
''अगले साल तो बोर्ड है मम्मी, अगले साल तो मैं खुद ही नहीं जाऊँगा, प्लीज इस बार जाने दो ना'' रूऑंसे से स्वर में कहा था राहुल ने ।
''नहीं का मतलब नहीं, उसमें जिद करने की क्या बात है । तुम्हारे भले के लिए ही तो कह रही हूँ । तुम पढ़ लोगे तो तुम्हारी ही जिंदगी बन जाएगी हमारी नहीं समझे''  और तो स्वर में डाँटते हुए कहा था सुषमा ने ।
''सब बच्चे जा रहे हैं मम्मी , लड़कियाँ भी हैं,  रंगोली सजा रही हैं होली के आसपास । मेरे सारे दोस्त भी तो आए हैं ।'' राहुल की आंखों में आंसू आ गए थे ।
''सब बेवकूफ  हैं तो तुम भी हो जाओ, बाकियों से तुमको क्या लेना । तुमको कैरियर बनाना है तो पढ़ना तो तुमको ही पढेग़ा ना ।'' सुषमा ने निर्णायक रूप  से झिड़का था । राहुल चुपचाप अपने कमरे में चला गया था । उसे पता था कि अब कुछ नहीं होने वाला ।
''क्या हो गया ? क्या सोचने लगी'' मंजुला भाभी के स्वर ने फिर सुषमा को वर्तमान में खींच लिया ।
''कुछ नहीं भाभी बस वही सोच रही थी कि त्यौहार पर्व सब धीरे धीरे खत्म होते जा रहे हैं।'' सुषमा ने बात बदलते हुए कहा ।
''खत्म हो नहीं  रहे है, बल्कि हम ही कर रहे हैं । ये पर्व ये त्यौहार तो वास्तव में जीवन की एकरसता को तोड़ने के लिए आते हैं । जब हमको लगता है कि जीवन एक ढर्रे पर आ गया है तब  ये पर्व आकर हमें परिवर्तन दे जाते हैं , उल्लास दे जाते हैं और आगे पुन: काम करने की ऊर्जा दे जाते हैं । बात उल्लास की हो तो है । हम अपने मोबाइल की, लेपटाप की सबकी बैटरी को समय पर चार्ज करते हैं, पर अपने अंदर की बैटरी का कभी नहीं सोचते कि वो कबसे डिस्चार्ज पड़ी है । ये पर्व, थे पिकनिकें, ये आउटिंग, ये अपने को रीचार्ज करने का ही तो तरीका है । और इन बच्चों को तो यादा जरूरत है रीचार्ज होने की  ।'' समझाइश के अंदाज में कहा मंजुला भाभी ने । सुषमा कुछ नहीं बोली, उसे याद आ रहा था बचपन, जब उस छोटे से कस्बे का वो मोहल्ला होली, दीवाली के आते ही कैसा खिल उठता था ।
''अरी लड़कियों जरा भी शऊर नहीं है तुममें । लाला जी क्या तुम्हारी उम्र के हैं जो उन पर रंग डाल दिया,  इत्ती बडी बड़ी हो गई हैं पर अकल रत्ती भर नहीं है । पूरा मोहल्ला सर पर उठा रखा है चार दिनों से ।''  छत पर खड़ी माँ तेज तेज स्वर में चिल्लाती थीं जब उन लोगों को किसी पर रंग डालते देखतीं । इधर मां चिल्लातीं और उधर खी खी करती पूरी टोली गायब हो जाती और किसी कोने में दुबक कर शिकार की तलाश करने लगती ।
शाम को नहा धोकर सजी धजी प्लेटें लेकर मोहल्ले के घरों में होली की मिठाई पहुंचाने का जो काम शुरू  होता तो रात तक चलता रहा । गुझियों, बेसन की बरफी, सेव, मठरियों से भरी प्लेटें जिन पर क्रोशिए की जाली से बने रुमाल ढंके रहते । उसके बाद दो तीन दिनों तक सहेलियों में होली की बातें चलतीं किस पर चुपके से रंग डाल दिया था, किस के बालों में चुपचाप से गुलाल भर दिया था, बातें कर करके आनंद लिया जाता था ।
''क्या हो गया भई  कहां खो गई फिर से'' मंजुला भाभी  ने कहा।
''कुछ नहीं भाभी बस आपकी ही बातों पर विचार कर रही थी ।'' सुषमा ने उत्तर दिया ।
''देखो सुषमा रोकने से कुछ नहीं होगा । हां थोड़ा बदलाव लाने से होगा । मैंने भी तो वही किया है । पक्के रंग और बाहर जाने, दोनों पर रोक लगा दी है, लेकिन घर में सारी व्यवस्था की हैं । आज भी केवल बारह बजे तक की मोहलत दी है । उसके बाद घर वापस । तुम भी वही करो, यूं रोकने से काम नहीं चलेगा, ये उनकी उम्र का संधिकाल है उनको आनंद लेने दो इसका, ये संधिकाल फिर नहीं लौट के आने का उनके जीवन में । बड़े होने के बाद जो होलियाँ तुम्हारे जीवन में आईं वो तुमको याद नहीं पर वो आज तक याद है जो संधिकाल की होली थी ।'' मुस्कुराते हुए कहा मंजुला भाभी ने ।
''मैं .....।'' अटकते हुए कहा सुषमा ने ।
''हां तुम, मुझे पता है तुमने राहुल को रोक दिया है, जाओ उसे अपने हिस्से का आंनद बटोरने दो, जीने दो अपने जीवन के संधिकाल को । ताकि तुम्हारी तरह उसकी भी स्मृतियों की पुस्तक में ये अध्याय अंकित हो जाएँ।'' कहते हुए मंजुला भाभी अंदर चली गई ।
सुषमा अंदर आई तो देखा एक पोलीथीन के बैग में कुछ सजावट का सामान रखा हुआ है । शायद राहुल अपनी तरफ से होली सजाने के लिए लाया है ।
''राहुल.....।'' उसने आवाज़ लगाई । आवाज़ सुनकर राहुल कमरे से निकल कर आया ।
''ठीक है जाओ, मगर बारह बजे से पहले मंजुला भाभी के बच्चों के साथ वापस आ जाना, और इस घरघुस्सी को भी ले जाओ, वहाँ कॉलोनी की लड़कियाँ रंगोली बना रही हैं और ये यहाँ टीवी देख रही है । थोडी देर बाद मैं आऊँगी मंजुला भाभी के साथ होली की पूजा करने, तब ले आऊँगी इसे वापस ।'' सुषमा ने कहा । राहुल ने झपटते हुए सुषमा के हाथ से बैग छीना और अंदर की तरफ दौड ग़या, थोड़ी ही देर में अंदर टीवी बंद हो गया । बंद होते ही छोटी की आवाज आई ''मम्मी....''  और फिर अंदर से लडने झगड़ने के स्वर आने लगे । सुषमा हंसती हुए किचिन में चली गई, उसे कल की तैयारियां जो करनी थीं  ।

5 comments:

Dr. Sudha Om Dhingra said...

पंकज जी ऐसी कहानियों की ज़रुरत है..
सच में हम पर्व , त्यौहार भूलते जा रहे हैं..

सिद्धार्थ प्रियदर्शी said...

कहानी अच्छी लगी.....

Ankit said...

प्रणाम गुरु जी,
कहानी हमेशा की तरेह बहुत अच्छी है, वाकई त्योहारों की महत्ता एक उम्र खासकर कुछ संधिकालों में ज्यादा होती है और अगर उनमे ही अगर उनका आनंद नहीं उठाया तो क्या ज़िन्दगी जी.
इंतज़ार है अगली कहानी का

गौतम राजऋषि said...

सचमुच, इस कम्पिटिशन के नाम पर हमने अपने बचपन को बचपन कहाँ रहने दिया है अब।

...अगली कहानी लगा दीजिये गुरूवर।

दर्पण साह said...

aadharshila se sira pakda hai yaha tak ka...
....superb writing !!

aur ye jo side main aapne youtube ka link lagaya hai usmeni taliya badi bakwaas lagi, itni behterin kavita ka satyanash kar diya. shrotaon ko kya itni bhi akl nahi ki...

...kahir choriye aapki lekhni ka kayal hoon.
aapke shishyon (arsh, gautam dajyu) tak hi nahi pahunch paya aap tak to khair....