कहानी नेह पत्र (पंकज सुबीर) साभार मधुरिमा दैनिक भास्कर

प्रिय गोलू
आज जब यह पत्र तुमको लिख रही हूँ तब मन बहुत उदास है । उदास है रक्षांबधन के एक सप्ताह पहले । इस दिन का कभी कितना इंतजार रहता था । लेकिन आज यही दिन जब देहरी पर खड़ा है तो मन में उदासी छा रही है । तब शायद पांच साल की थी मैं जब तुम्हारा जन्म हुआ था । कितनी उल्लासित थी मैं ? पूरे मोहल्ले को दौड़ दौड़ कर बता आई थी कि मेरा भी भाई आ गया है । इस साल से मैं भी राखी बाधूंगी । बताने का भी एक कारण  था । उसके पिछले साल जब राखी आई थी, और मैं सुबह बाहर बैठी अपनी गुड़िया के कपडे बदल रही थी कि तभी पड़ोस में रहने वाली मेरी सहेली चिंकी आ गई थी । खूब सुंदर कपड़े पहनकर, तय्यार होकर आई थी वो । मेरे पूछने पर उसने आंखे मटका मटका कर बताया था कि वो आज अपने भैया को राखी बांधेगी फिर उसको पैसे मिलेंगे चाकलेट मिलेगी । ‘राखी…..?’ मैं दौड़ती हुई अंदर गई थी और मम्मी से लड़ पड़ी थी कि मुझे क्यों नही तैयार किया राखी के लिये । हंसते हुए कहा था माँ ने, ‘तू किसे राखी बांधेगी ? तेरा भाई कहाँ है ?’। उदास सी मैं वापस चली आई थी बाहर। मेरी उदासी देख कर मम्मी ने शाम को पापा के हाथ पर मुझसे राखी बंधवा दी थी, पापा ने मुझे चाकलेट और पैसे भी दिये थे। मैं खुशी खुशी चाकलेट और पैसे चिंकी को दिखाने गई थी । चिंकी ने पूरी बात सुनकर कहा था ‘हट पागल, कहीं पापा को भी राखी बांधी जाती है ? राखी तो भाई को बांधी जाती है ।’ चिंकी की बात सुनकर मेरी सारी खुशी काफूर हो गई थी । उस दिन शायद पहली बार मैंने पीपल के नीचे रखे सिंदूर पुते हुए गोल मटोल पत्थरों से कुछ मांगा था । ‘मुझे भी एक भाई दे दो, राखी बांधने के लिये ।’
और फिर  तुम आ गए थे । जैसे ही पापा ने अस्पताल से आकर मुझे कहा था ‘मिनी, तुम्हारा छोटे भाई आया है ।’ मैं खुशी से झूम उठी थी । घर से दौड़ती हुई निकली तो पूरे मोहल्ले में चिल्ला चिल्ला कर बता आई थी कि मेरा भी भाई आ गया है अब मैं भी राखी बांधूगी । उस राखी पर जब मैंने तुम्हारी नाजुक मैदे की लोई समान कलाई पर राखी बांधी थी तो ऐसा लगा था मानो सारे जमाने की खुशियां मुझे मिल गईं हों । तुम्हारी नन्हीं नन्हीं उंगलियों से छुआकर मम्मी ने जो चाकलेट मुझे दी थी वो मैंने कई दिनों तक नहीं खाई थी । स्कूल बैग के पॉकेट मैं वैसे ही रखी रही थी वो। सबको वो चाकलेट इस प्रकार निकाल कर बताती थी मानो कोई ओलम्पिक का मैडल हो । और गर्व से कहती थी ये चाकलेट मेरे भाई ने मुझे दी है, पता है मैंने तो उसके हाथ पर राखी भी बांधी थी । उस एहसास को आज भी याद करती हूँ तो ऐसा लगता है मानो में फिर से उसी उम्र में पहुंच गई हूं । फिर उसके बाद आने वाले रक्षाबंधन, अब तो यूं लगता है जैसे सपनों का कोई सुनहरा अध्याय था जो पढ़ते पढ़ते अचानक समाप्त हो गया । हर साल रक्षाबांधन पर मुझे एक नई ड्रेस मिलती थी । मुझे भी नहीं पता कि रोज उठने के नाम पर नखरे करने वाली मैं, उस दिन सुबह सुबह कैसे उठ जाती थी । मम्मी अभी उठी भी नहीं होती थीं कि मैं पहुंच जाती ‘मुझे मेरी नई ड्रेस दे दो, मैं नहाने जा रही हूँ, गोलू को राखी बांधनी है ।’
‘गोलू‘ ये नाम भी तो मैंने ही रखा था तुम्हारा । गोल मटोल आंखें और गेंद के समान गोल चेहरा देखकर ये नाम रख दिया था ‘गोलू ‘। मम्मी डांटती ‘अभी सुबह से पहन लेगी तो राखी बांधने तक गंदे कर लेगी कपडे’ । मगर मुझे चैन कहां होता था? मेरे लिये तो अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य सामने होता था, गोलू को राखी बांधने का ।
कुछ और साल बीते, मैं भी कुछ बड़ी हुई और तुम भी कुछ बड़े हुए । अब रक्षाबंधन पर मेरा काम ये हो गया कि मैं पहले तुमको राखी बाँधती और फिर तुमको गोद में उठा कर पूरे मोहल्ले का चक्कर लगाने निकल पड़ती । हर पहचान वाले को रोककर कर बताती ‘अंकल देखो मैंने गोलू को राखी बांधी है ।’ हाँ पीपल के नीचे रखे उन गोल मटोल पत्थरों के पास जाना कभी नहीं भूलती थी । कई बार मम्मी से पूछा कि मम्मी ये पीपल के नीचे कौन से भगवान हैं, पर उन्हें भी नहीं पता था । इसमें मुझे ये परेशानी आती थी कि जब पीपल के पास जाकर हाथ जोड़ती तो ये समझ में नहीं आता था कि कौन से भगवान  का नाम लूं । पीपल के चबूतरे पर तुमको बैठा कर जब में हाथ जोड़ती तो तुम गोल गोल आंखों से मुझे टुकुर टुकुर ताकते रहते ।
फिर हम कुछ और बडे हुए । और अब हममें झगड़े शुरू हो गए । तुम्हें शुरू से ही केवल वो ही चीजें खेलने के लिए चाहिये होती थीं जो मेरी होती थीं । जब तक तुम छोटे वे तब तक तो में खुद ही अपनी चीजें तुमको खेलने को दे देती थी लेकिन जब तुम बडे होने लगे और मेरी चीजों के लिये जिद करने लगे तो में भी जिद्दी होने लगी । मम्मी का ये कहना मुझे बिल्कुल नहीं पसंद आता था ‘दे दे मिनी,  तू बड़ी है वो छोटा है’ । ‘छोटा है तो क्या, मैं नहीं देने वाली अपनी चीजें।’
मेरी वो मन पसंद गुडिया जो पापा ने मुझे दिल्ली से लाकर दी थी । उस दिन जब स्कूल से लौटी तो देखा कि उसके घने सुनहरे बाल किसी ने बेदर्दी से इस प्रकार काटे हैं कि अब सर पर घांस फूस की तरह एक गुच्छा बचा है। करने वाले तुम ही थे । बहुत रोई थी मैं, तुमको अकेले में एक मुक्का भी मारा था । बहुत दिनों तक सोचती रही कि  जैसे इंसानों के बाल कटने के बाद फिर बढ़ जाते हैं उसी प्रकार गुड़िया  के भी बढ़ जाएंगे मम्मी की नजर बचा कर उसके सर में तेल की मालिश भी करती रही, पर बालों को नहीं बढ़ना था सो नही बढे ।
समय बीतता रहा और हम बढ़ते रहे । इस बढने के साथ ये भी होता रहा कि तुम्हारे और मेरे के झगड़े भी बढ़ते रहे । बीच में पिसती रहीं मम्मी । मैं कहती कि तम गोलू का पक्ष लेती हो और तुम कहते कि तुम दीदी की तरफदारी करती हो । तब कहाँ पता था मुझे कि माँ तो सुलह का पुल होती है वो पक्षपात कभी नहीं करती । मां ‘तरफ’ कभी नहीं होती, माँ तो परिवार नाम के वृत्त का केन्द्र होती है। परिधि पर खडे परिजनो में हरेक को यही लगता है कि मां उससे कुछ दूर है तथा दूसरे के कुछ पास है किन्तु केन्द्र ऐसा कब होता है यदि वो किसी के दूर और किसी के पास होगा तो केन्द्र कहाँ रहेगा ।
फिर और समय बीता, मैं कॉलेज पहुंची और पापा ने मुझे कॉलेज आने जाने के लिये मोपेड दिलवा दी । तुम्हारी नजर उस पर भी रहने लगी । जैसे ही मैं कॉलेज से आती तुम मम्मी से जिद करने लगते कि मुझे मैदान का एक चक्कर लगाने के लिये गाड़ी  चाहिए । हार कर मुझे चाबी देनी पड़ती और फिर कभी तुम इण्डीकेटर  तोड लाते, तो कभी एक के बजाय चार पांच चक्कर लगा कर उसका पूरा पेट्रोल खत्म करके चुपचाप उसे लाकर खडी क़र देते । फिर मैं हंगामा मचाती और जोर शोर से झगड़ा होता ।
कॉलेज की मेरी पढाई खत्म होने को थी जब तुम कॉलेज में पहुचे थे । उस समय तक हमारे झगड़ो की जगह अबोले ने ले ली थी अब हम झगडते नही थे बल्कि एक दूसरे से बोलना बंद कर देते थे । कई बार दो दो, तीन तीन महीनों तक नहीं बोलते थे ।
अब जब ये रक्षाबांधन आया है तब भी वही स्थिति है, हममें बोलचाल बंद है । मेरी उदासी का कारण ये नहीं है बल्कि ये है कि इस घर में मेरा ये आखिरी सावन है, दिसम्बर में मैं विदा हो जाऊंगी यहां से । विदा हो जाऊंगी घर से, मम्मी से, पापा से, तुमसे, पीपल से और सबसे । चली जाऊंगी एक अन्जाने देश कुछ अन्जाने लोगों के बीच । बहुत सारी यादें साथ ले जाऊंगी और बहुत सी छोड़ जाऊंगी । यादें उस पहले रक्षा बंधन की, यादें उस पहली चाकलेट की ।
जब से मेरी शादी की तारीख पक्की हुई है तब से मैं एक बोझिल उदासी को घर में सांस लेते देख रही हूँ । पापा इन दिनों मेरा बहुत खयाल रखने लगे हैं । और मम्मी ….। उनको तो जाने क्या हो गया है । चुपचाप कभी किचिन में तो कभी बरामदे में बैठी रोती रहती हैं । कुछ पूछती हूं तो कुछ भी नहीं बोलतीं, बस पानी भरी आंखों से मुझे देखती रहती  हैं।  उस दिन जब शाम को घर आई तो देखा मम्मी और पापा बरामदे में ही बैठे हैं । मम्मी की आंखें आंसुओ से भरी हैं । पापा की आंखे भी गीली हैं । मैं जैसे ही पास पहुंची  पापा मुझे सीने से लगा कर फूट फूट कर रो पडे । पहली बार देखा पापा को रोते, वो भी इस तरह ।
गोलू, सब कुछ छूट रहा है मेरा यहीं। अब टीवी के रिमोट कंट्रोल  पर तुम्हारा ही कब्जा रहेगा । मेरी पढ़ने की टेबिल जिसको लेकर हमेशा ही तुम्हारे साथ मेरा झगड़ा हुआ अब वो तुम्हारी हो जाएगी । टेबल की दराज में मेरा कुछ सामान रखा है उसे वैसे ही रखे रहने देना । उसमें मेरी वो गुड़िया भी है जिसके बाल तुमने काट दिये थे । पहली राखी पर तुमने जो चाकलेट दी थी उसका रैपर भी वहीं रखा है, एक माचिस की डिबिया में बंद । एक फोटो भी है जो शायद दूसरी या तीसरी राखी पर खिंचवाया था तुमको राखी बांधने के बाद  । और ऐसा ही बहुत सामान है । उसे मत हटाना, जब कभी  आऊंगी तो इनको देखकर याद ताजा कर लिया करूंगी । जब तुम्हारी शादी हो जायेगी और तुम्हारी बिटिया होगी तो ये बाल कटी गुडिया उसको दूंगी और कहूंगी ‘ये है तेरे शैतान बाप की करतूत….. ।’
गोलू, पढ़ती आई हूँ कि शादी के बाद लड़की का पूरा जीवन बदल जाता है, मेरा क्या होना है नहीं जानती । आने वाला जीवन कुहासे में ढंका है, पास जाऊंगी तब ही पता चलेगा वहाँ क्या है । पर तुम्हारे साथ, मम्मी पापा के साथ, इस घर में बिताये  जीवन की बहुत अच्छी यादें मेरे साथ हैं । इन यादों का आधार ही मेरे उस जीवन का सम्बल होगा । और ये यकीन तो है ही कि दुख में, परेशानी में, मेरा वो कल का नन्हा गोल मटोल गोलू मेरे साथ होगा । मेरी इच्छा है कि ये रक्षाबंधन हम उसी प्रकार मनाएँ जैसे बचपन में मनाते थे दिन भर धींगा मस्ती करते हुए । अबोला होने के कारण पत्र लिख रही हूँ । कोई दूसरी लड़की तुम्हें पत्र लिखती तो उसे प्रेम पत्र कहते, लेकिन ये तुम्हारी बहन लिख रही है इसलिये ये नेह पत्र है । रक्षाबँधन का नेह पत्र-मिनी का गोलू के नाम ।

– तुम्हारी दीदी-मिनी

(कहानी नेह पत्र, पंकज सुबीर, दैनिक भास्कर मधुरिमा में प्रकाशित)

चौपड़े की चुड़ैलें (कहानी : पंकज सुबीर), साभार - हंस अप्रैल 2016

चौपड़े की चुड़ैलें ( राजेंद्र यादव हंस कथा सम्‍मान 2016 प्राप्‍त कहानी)
हवेली वैसी ही थी जैसी हवेलियाँ होती हैं और घर वैसे ही थे, जैसे कि क़स्बे के घर होते हैं। कुछ कच्चे, कुछ पक्के। इस क़स्बे से ही हमारी कहानी शुरू होती है। कहानी शुरू तो होती है लेकिन, उसका अंत नहीं होता है। उसका अंत होना भी नहीं है। क्योंकि यह वो कहानी नहीं है जिसका अंत हो जाए। शहर से कुछ दूर यह क़स्बा बसा था। हवेली जर्जर हो चुकी थी। मगर उसे देख कर लगता था कि कभी इसकी शानौ-शौक़त देखने लायक रही होगी। दीवरों के रंग अब उड़ चुके थे। बड़े-बड़े दरवाज़े जिनसे कभी शायद हाथी भी अंदर चले जाते होंगे, वे भी बूढ़े हो चुके थे। उन दरवाज़ों पर काली चीकटें जमा थीं। जब अच्छा समय रहा होगा तब इन दरवाज़ों को तेल पिलाया जाता होगा, रंग रौगन किया जाता होगा। अब समय वैसा नहीं है तो समय ख़ुद ही इन पर चीकट चढ़ा कर रंग रौगन कर रहा है। बड़ी हवेली सूनी थी। सूनी का मतलब वीरान जैसी नहीं थी। बस यह था कि हवेली में कोई चहल-पहल नहीं थी। कुछ हिस्सा गिर चुका था। जो नहीं गिरा था वह भी कब गिर जाए, कुछ नहीं कह सकते थे। उस बचे हुए हिस्से में तीन छायाएँ डोलती रहती थीं। तीन औरतें। उस खंडहर में वह तीन औरतें ही रहती थीं बस। अकेली। तीनों उम्र के तीन अलग-अलग पायदानों पर खड़ीं थीं। सबसे बड़ी वाली पैंतालीस से पचास के बीच की थी। उसके बाद वाली अभी न जवान थी और न बूढ़ी ही थी। यह कह सकते हैं कि लगभग जवान ही थी और तीसरी वाली जवान थी।
हवेली के पीछे कुछ फासले पर एक बाग़ था। बाग़ में फूल-वूल जैसा कुछ नहीं था। असल में यह एक आम के पेड़ों का झुरमुट था। घना झुरमुट। जिसके बीच में एक बावड़ी बनी हुई थी। बावड़ी नहीं थी, बल्कि चौपड़ा था। चौपड़ा मतलब एक ऐसी चौरस बावड़ी जिसमें चारों तरफ से नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हों। नीचे की तरफ जाकर जहाँ पानी भरा होता है, उससे कुछ ऊपर चारों तरफ छोटी छोटी कोठरियाँ बनी हों। चौकोर आकार के चौपड़े में चारों दीवारों पर दोनों कोने से उतरी सीढ़ियाँ अंग्रेजी के वी अक्षर का आकार बना कर एक जगही मिल जातीं। उसके बाद उल्टा वी का आकार बना कर नीचे पानी की तरफ चली जातीं। ऊपर से उतरी सीढ़ियाँ जहाँ पर आकर मिलतीं और फिर से दो हिस्सों में बँटती उसके ठीक नीचे ही यह कोठरियाँ होतीं। उल्टे वी के नीचे। यह कोठरियाँ छिपी रहती थीं सीढ़ियों के पीछे। चारों तरफ की सीढ़ियाँ जहाँ जाकर ख़त्म होती थीं वहाँ नीचे एक चारों सीढ़ियों को मिलाता हुआ एक पत्थर का प्लेटफार्म था। प्लेटफार्म के नीचे पानी और बीच से कोठरी में जाने को सीढ़ियाँ। इस प्रकार के चौपड़े हवेलियों और महलों की महिलाओं के लिए बनवाए जाते थे पहले। बड़े घरों की महिलाएँ इनमें ही जाकर स्नान करती थीं। नीचे बनी कोठरियों में कपड़े बदलतीं थीं और सीढ़ियाँ चढ़कर घर को लौट आती थीं। चौपड़ों में पत्थरों की खूब नक्काशी की जाती थी। कोठरियों के अंदर भी नक्काशीदार आले बने रहते थे। चबूतरे बने होते थे। महिलाएँ चाहें तो कुछ देर विश्राम भी कर लें वहीं पर। जब हवेलियाँ गुलज़ार रहती थीं तो कोठरियों में सोने-बैठने की सारी व्यवस्था रहती थीं। हवेली उजड़ीं तो कोठरियों में बस पत्थर के चबूतरे रह गए। ऊपर से देखने पर यह चौपड़े बहुत खूबसूरत दिखते थे। चारों दीवारों पर सीढ़ियों का डमरू आकार और उस पर बनी कलाकृतियाँ। चौपड़े में भी खूब कलाकारी की गई थी। जगह-जगह पत्थरों पर फूलों की बेलें बनीं थीं। नक्काशीदार खंभे सीढ़ियों के पास खड़े थे। बहुत मेहनत के साथ और बहुत प्रेम से बनवाया गया था इस चौपड़े को। जब बनवाया गया था, तब किसे पता था कि एक दिन इसे इस प्रकार वीरान होना पड़ेगा। 
तो आम के बाग में यह चौपड़ा था। उस आम के बाग को नागझिरी कहा जाता था। क्यों कहा जाता था, उसका भी किस्सा है। असल में बाग के चारों तरफ वहले एक फसील हुआ करती थी। उस पत्थर की फसील में जो दरारें थीं, उनमें छोटे मोटे साँप रहा करते थे। चूँकि नाग दरारों में या झिरियों में रहते थे, इसलिए बाग़ का नाम पड़ गया नागझिरी। जब तक हवेली के अच्छे दिन रहे तब तक दरारें भी रहीं और साँप भी। अब न तो फसील बची और न ही साँप बचे हैं। मगर नाम अभी भी है उसका नागझिरी। यह जो नागझिरी बाग है, यह हवेली की संपत्ति है। या यूँ कहें कि हवेली वालों के पास बची हुई आख़िरी संपत्ति। इसी बाग़ के सहारे हवेली अपने आज को बिता रही है। हवेली के पीछे से एक पगडंडी जैसा रास्ता नागझिरी तक गया हुआ था। रास्ते के दोनों तरफ जंगली झाड़ियाँ लगीं थीं। पीले और नारंगी फूलों वाली जंगली झाड़ियाँ, जिनके पत्तों को हाथ में लेकर मसलो, तो तीखी गंध आती थी। यह पगडंडी केवल हवेली के उपयोग  के लिए ही थी। यह पगडंडी, जब चौपड़ा बना तो महिलाओं के उपयोग के लिए, उनके आने जाने के लिए बनाई गई थी। इसीलिए इसके दोनों तरफ घनी झाड़ियाँ लगाईं गईं थीं। इतनी घनी, कि हवा भी अंदर आने के लिए रास्ता ढूँढ़े। अच्छे समय में महिलाएँ इसी पगडंडी से होकर स्नान के लिए चौपड़े पर जाती थीं। महिलाओं की हिफ़ाज़त के लिए जंगली झाड़ियों को पगडंडी के दोनो तरफ लगाया गया था। हवेली की महिलाएँ नहाने के लिए जा रही हैं और उनको कोई देख ले, यह हवेलियों को और महलों को कभी मंज़ूर नहीं रहा। बल्कि उनका तो यह भी सोचना था कि हमारी महिलाएँ तो किसी भी सूरत में किसी को दिखाई नहीं दें। पता नहीं कब पगडंडी बनी और कब झाड़ियाँ लगीं लेकिन झाड़ियाँ आज बेहद घनी थीं।
यह तो बात हुई हवेली की। अब बात करें क़स्बे की। तो क़स्बा वैसा ही क़स्बा था जैसा होता है। कुछ बूढ़े थे जो दिन भर चौपाल पर बैठे बीड़ी फूँकते रहते थे और मरने का इंतज़ार करते हुए एक दिन बिता देते थे। यह बूढ़े चौपाल का स्थायी हिस्सा थे। इनके अलावा जो जवान थे या जवान से कुछ आगे की स्थिति में थे, वह खेती किसानी का काम करते थे। और जब खेत पर करने को कुछ नहीं होता था तो यह भी क़स्बे के मंदिर के पीछे के मैदान में बैठ कर गाँजा-चिलम सूँटते थे। इसके अलावा क़स्बे में एक और नस्ल भी थी। वह नस्ल जो अभी जवान नहीं हुई थी। जो जवान होने की तैयारी में थी। मगर जवान होने से पहले ही जवानी के सपने जिनकी आँखों में रात भर ठेला-ठेली करने लगे थे। यह लड़के क़स्बे के पास ही एक दूसरे क़स्बे के सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ने जाते थे। साइकिलों से। और पढ़ कर आने के बाद दिन भर फिर आवारा फिरते थे। माँ-बाप खुद तो पढ़े लिखे नहीं थे जो इनको पढ़ाई-लिखाई के लिए टोकते। उस पर यह कि सरकारी स्कूल में नकल का भव्य आयोजन होता था परीक्षाओं के दौरान। इस नकल के आयोजन में शामिल होने के लिए मास्टरों को फीस देनी पड़ती थी। माँ-बाप यह परीक्षा फीस देकर अपने बच्चों को पास करवा लेते थे। शहर से दूर होने के कारण कभी कोई फ्लाइंग स्कवाड या शिक्षा विभाग का छापामार दल यहाँ तक नहीं पहुँचता था। बच्चे उस स्कूल में जाते थे और साल भर बाद पास होकर अगली कक्षा में आ जाते थे। ख़ैर तो बात यह कि यह लड़के अब जवान हो रहे थे। जवान होती उमर अपने साथ बहुत सारे सवाल लाती है, जो इन लड़कों के पास भी थे। स्कूल से आने के बाद इन लड़कों के पास कोई काम होता नहीं था। घर आकर खााना खाया और उसके बाद निकल पड़े। यह उम्र में लोबान महकने का समय था। लड़के कस्तूरी की तरह अपनी नाभी में महकते लोबान की तलाश में भटकते फिरते थे।
अब बात उस कहानी की जो पूरे क़स्बे में मशहूर थी। असल में नागझिरी के उस चौपड़े को लेकर बहुत सारी बातें फैली हुईं थीं। असल में कहानियाँ तब बननी शुरू हुईं थीं, जब हवेली की दो लड़कियों की चौपड़े में डूबने से मौत हो गई थी। बात पुरानी है। हवेली के अच्छे दिनों की। यह जो लड़कियाँ थीं, यह हवेली के मालिकों में से नहीं थीं। यह हवेली में काम करने वाली थीं। एक दिन अचानक शाम को दोनो की लाश चौपड़े में तैरती हुईं पाईं गईं थीं। कम उम्र की दोनो लड़कियाँ कुछ दिनो पहले ही हवेली में काम करने आईं थीं। तब हवेली में रौनक़ें हुआ करती थीं। हवेली तब सचमुच की हवेली थी, आज की तरह खंडहर नहीं हुई थी। दोनो की मौत पर हवेली ने प्रचारित किया कि चौपड़े का पानी पवित्र पानी है, जिसमें केवल हवेली वालों को ही स्नान करना चाहिए। चौपड़े के पानी की रक्षा नागझिरी में रहने वाले साँप करते हैं। यह साँप केवल हवेली वालों को ही पानी में नहाने देते हैं। इसके अलावा कोई और अगर पानी में नहाने की कोशिश करे, तो साँप उसे डस कर मार डालते हैं।  इन लड़कियों ने नियम तोड़ कर चुपचाप चौपड़े में नहाने की कोशिश की इसलिए दोनो मारी गईं। चौपड़ा केवल हवेली वालों के लिए ही है। क़स्बे वालों ने भी विश्वास कर लिया। हवेली के अच्छे दिन थे इसलिए सबने मान लिया कि यह जो लड़कियों की गरदन पर गला घोंटने के निशान हैं, यह भी असल में साँप द्वारा कुंडली में कसने के निशान हैं। नाग देवता ने लड़कियों को डसने के स्थान पर गले में अपनी कुंडली का फंदा कस कर दोनो लड़कियों को मारा है। इस घटना के बाद यह भी प्रचारित हो गया था कि चौपड़ा अभिशप्त है, उसमें केवल हवेली वाले ही नहा सकते हैं। उस समय तो नागझिरी के चारों तरफ फसील थी इसलिए बाहर का तो कोई अंदर जा ही नहीं सकता था, लेकिन अब जब फसील टूट चुकी है, तब भी कोई नहीं जाता उस तरफ। रात को तो बिल्कुल ही नहीं। वैसे भी उस बाग़ में और उस चौपड़े में है ही क्या ऐसा जो कोई वहाँ पर जाए।
रात को नहीं जाने का कारण एक और कहानी है। कहानी जो बाद में बनी जब हवेली के बुरे दिन आ गए। कहानी यह बनी कि वह दोनो लड़कियाँ जो बरसों पहले चौपड़े के पानी में डूब कर मरी थीं, वह दोनो चुड़ैलें बन कर अचानक ही वापस आ गईं। हैरानी की बात यह थी कि उनके मरने और चुड़ैलें बनने में काफी बरसों का अंतर था। ख़ैर तो जब वह चुड़ैलें बन कर आ गईं तो लोगों को उनका पता भी चलने लगा। पता चलने लगा अफवाहों में। किसी को हँसने की आवाज़ आती, तो किसी को चूड़ियाँ खनकने और पायल बजने की आवाज़ आती। किसी-किसी को चुड़ैलें दिखाई भी दे जाती थीं। यह सब रात को ही होता था। कई सारे क़िस्से हवाओं में थे। किसीको अचानक रात को चौपड़े के पास दो लड़कियाँ फुंदी-फटाका खेलते दिख जातीं थीं। किसीको चौपड़े के पास खड़े आम के पेड़ की शाख पर चुड़ैल बैठी दिखती, जो आदमी को देखते ही, शाख से सीधे चौपड़े के पानी में छलाँग लगा देती। छपाक की आवाज़ को वह आदमी इतनी दहशत के साथ अपने क़िस्से में शामिल करता कि सुनने वाले की रूह फना हो जाती। असल में चौपड़े और नागझिरी के कुछ दूर से एक रास्ता गया था खेतों की ओर। उस रास्ते से आने जाने वाले ही क़िस्से बनाते थे। क़िस्से जवान और अधेड़ बनाते, बूढ़ों को और बच्चों को कभी चुड़ैलें नहीं दिखी थीं। बूढ़े और बच्चे तो दिन भर उन क़िस्सों पर चर्चा करते थे। दिन में नागझिरी और चौपड़ा दोनों अपने सूनेपन और ख़ामोशी को समेटे चुपचाप खड़े रहते थे। नागझिरी का वह आमो का बग़ीचा हर साल हम्मू ख़ाँ ठेकेदार हवेली से किराए पर ले लिया करता था। किराए पर लेने के बाद बग़ीचे के फल उसके होते थे। हम्मू ख़ाँ हवेली का ही पुराना मुलाज़िम था, बहुत बच्चा था जब हवेली में काम पर लगा था। बीस-पच्चीस साल तक हवेली में काम किया है उसने। जब हवेली की हैसियत मुलाज़िम रखने की नहीं रही, तो हम्मू ख़ाँ भी बाकियों की तरह हवेली से चला आया। ज़िंदगी चलाने को बस यही काम करता है। आम, अमरूदों, इमलियों और दूसरे फलदार पेड़ों को ठेके पर लेता है और फल बेचकर गुज़ारा करता है। यहाँ भी वह दिन भर बाग़ की रखवाली करता था। ठेके में एक निश्चित राशि और कुछ आम उसे हवेली को देने होते थे। तो आमो के सीज़न में तो हम्मू खाँ बाग़ में दिख जाता था लेकिन, उसके बाद फिर से वीरानी छा जाती थी। तो बाक़ी के साल भर कोई उस तरफ जाता भी नहीं था। हवेली की महिलाओं ने तो चौपड़े पर नहाने के लिए जाना बरसों पहले ही बंद कर दिया था। उन लड़कियों के मरने की घटना के ठीक बाद। अब वह लोग हवेली में ही लगे हैंड पंप से पानी लेकर वहीं नहा लेती थीं। यह हैंड पंप उन लड़कियों के मरने की घटना के बाद पुरुषों ने लगवा दिया था। तो यह भूतिया नागझिरी बाग़ सन्नाटे में डूबा हवेली के पिछवाड़े खड़ा था।
क़स्बे के जवान होते लड़कों के लिए चौपड़ा मुफीद जगह थी दिन काटने की। चौपाल पर बूढ़ों का कब्ज़ा था और मंदिर के पीछे के मैदान पर जवानों का। तो लड़कों ने अपना अड्डा बनाया नागझिरी और चौपड़े में । गरमी के दिनों में तो वहाँ हम्मू ख़ाँ भी होता था। लम्बी और मेंहदी के रंग में रँगी दाढ़ी, सिर पर गोल जालीदार टोपी, टोपी से झाँकते मेंहदी में रंगे बाल, बड़ी मोहरी का सफेद पायजामा और उस पर गोल गले का सफेद कुरता। कुरते की जेब से लटकते तम्बाख़ू-सुपारी की थैली के बंद। आँखों में गहरा सुरमा। मुँह में हमेशा दबा हुआ पान। उँगली के सिरे पर लगा हुआ चूना, जिसे बीच-बीच में चाटने की आदत। हाथ में हमेशा एक लाठी। उम्र यही कोई पैंतालीस से पचास के बीच। हम्मू ख़ाँ और इन जवान हो रहे लड़कों के बीच अजीब सा रिश्ता था। लुकाछिपी का। एक अकेला हम्मू ख़ाँ और जवान होते  कई सारे लड़के। हम्मू ख़ाँ इनको लौंडे-लपाटी कहा करता था। दिन भर डंडा लेकर घूमता रहता था बाग़ में। दिन में यह लड़के हिम्मत करके चौपड़े में कूद कर नहा भी लेते थे, हम्मू ख़ाँ से परमीशन लेकर। अब तो नहाने की कोई मनाही नहीं थी, असल में अब तो रखवाले ही चले गए थे। रखवाले मतलब वह साँप जो पहले दरारों में रहते थे। चौपड़े के पानी की केवल हवेली वालों के लिए रक्षा करने वाले जा चुके थे। अब तो कोई भी नहा सकता था उस पानी में। हालाँकि चौपड़े में क़स्बे वाले अब भी नहीं नहाते थे, बल्कि वह तो चौपड़े की ओर जाते भी नहीं थे मगर, लड़कों को कौन रौकता। लड़के चकमा देकर आम भी उड़ा ले जाते थे। कभी-कभी ऐसा लगता था कि हम्मू ख़ाँ को भी पता था कि लड़के आम उड़ा ले जाते हैं लेकिन, वह अनभिज्ञ बना रहता है। कई बार तो वह लाठी लेकर उस पेड़ के नीचे ही खड़ा रहता, जिस पेड़ पर कोई लड़का चढ़ा होता और कई बार यह भी होता कि वह कनखियों से देखता हुआ निकल जाता। शायद चुड़ैलें भी इसी प्रकार से इन लड़कों को खेलता देख कर चुपचाप निकल जाती होंगी, और शायद नागझिरी के साँप भी।
बात उस समय की है जब चुड़ैलों का प्रकोप चौपड़े पर बढ़ा हुआ था। बात उन दिनों की भी है जब यह लड़के देह की तरफ से परिवर्तित हो रहे थे। जिज्ञासाओं के पहाड़ अपनी छाती पर लाद कर घूमते थे। जिज्ञासाएँ जिनका कोई समाधान नहीं था। सवाल थे लेकिन, उन सवालों का कोई उत्तर नहीं था। जिनके पास उत्तर थे वह लोग इन लड़कों को उत्तर बताने के लिए तैयार नहीं थे। लड़के अपनी देह में ऊगते प्रश्नों को सहलाते रहते थे। चौपड़े के पानी में तलाश करते थे कि कहीं कोई गंध दिन में बची हो चुड़ैलों की। नहा कर चौपड़े की कोठरियों में बने चबूतरों पर लेट जाते। चबूतरों में से कभी-कभी कोई गंध आती भी थी, धीमी-धीमी। गंध अजीब सी होती थी। लड़कों ने इससे पहले यह गंध नहीं सूँघी थी। जिस दिन भी गंध आती उस दिन लड़के चबूतरे के पत्थर पर पेट के बल लेट कर, नाक को पत्थर पर टिका कर गहरी-गहरी साँसें भर सूँघते रहते उस गंध को। अपने अंदर, गहरे, बहुत कहरे उतारते रहते उस गंध को। पत्थर के बीचों-बीच से आती थी वह गंध। जब तक चौपड़े में रहते तब तक कपड़ों से कोई राब्ता नहीं होता इनका। नहाने से पहले उतारे हुए कपड़े, तब ही पहनते जब वापस चौपड़े से निकलने का समय हो जाता। और निकलने का कोई तय समय तो था नहीं। जब सूरज उतरने लगे, तब निकल लो। निकल लो, क्योंकि अब चुड़ैलों का समय हो रहा है। बचपन अभी कुछ दिनों पहले ही विदा हुआ था, इसलिए डर तो था मन में। अँधेरा होने से पहले ही निकल कर भाग जाते थे चौपड़े से। जब तक चौपड़े में रहते तब तक, इधर-उधर पड़ी हुई कुछ काँच की बोतलों और कुछ अजीब से सामानों को उठाते और उनसे राब्ता पैदा करने की कोशिश करते। लड़कों को कुछ पता नहीं था कि यह सब क्या हो रहा है? यह जो देह में अँखुए से फूट रहे हैं यह अँखुए आखिर हैं क्या? तलाश जारी थी सत्य की। तो रात भर जहाँ चुड़ैलों का साम्राज्य रहता था, वहीं दिन में इन भूतों का डेरा उस चौपड़े में जमा रहता था।  नागझिरी का वह बाग़ पूरी तरह से अतृप्त आत्माओं के चंगुल में आ चुका था, दिन में भी और रात में भी।
एक गरमी का मौसम बीत कर दूसरा आने तक, लड़कों और हम्मू ख़ाँ के बीच कुछ संवाद शुरू हो गए थे। लड़के अब हम्मू ख़ाँ के आम चुराते नहीं थे, बल्कि उन आमों की रखवाली करने में भी हम्मू ख़ाँ का साथ देते थे। लड़कों के जीवन से कच्ची कैरियाँ और आम खाने के मौसम अब जा चुके थे। अब पेड़ों पर लगी कैरियाँ उनको ललचाती नहीं थीं। लेकिन और भी अब बहुत कुछ ऐसा था जो उनको ललचाता था। लेकिन जो ललचाता था वह कैरियों की ही तरह पत्तों में छिपा था। सामने ही नहीं आता था। लड़के पत्तों का हटा-हटा कर तलाशते थे कि क्या है, जो ललचा रहा है लेकिन.....। बचपन अब पूरी तरह से बीत चुका था। लड़के अब हिम्मत करके हम्मू ख़ाँ से पूछ भी लेते थे कि चाचा आपने कभी देखी हैं यहाँ की, चौपड़े की चुड़ैलें ? कैसी हैं वह चुड़ैलें ? आप तो रात-बिरात भी जब आँधी चलती है, तो बाग़ में आते हो टपकी हुई कैरियों को बीनने। हम्मू ख़ाँ, चुड़ैलों का नाम आते ही चुप हो जाते थे। कुछ कहने की कोशिश करते, फिर कुछ सोचकर चुप हो जाते। उनकी सुरमे से भरी आँखें मिंचमिंचाने लगतीं। हम्मू ख़ाँ उन लड़कों के साथ अब कुछ ऐसी बातें भी कर लेते थे, जिनको सुनकर लड़कों के मन में रस उतरता था। हम्मू ख़ाँ के पास तो क़िस्सों का भंडार था। क़िस्से जो नीली फिल्मों की तरह नीले-नीले थे। हम्मू ख़ाँ कभी-कभी लड़कों को यह नीले क़िस्से भी सुना देते थे। लड़कों के दिलो-दिमाग़ पर एक नशा सा तारी होने लगता था इन क़िस्सों को सुनकर। एक और, एक और, और हम्मू ख़ाँ एक के बाद एक नीले क़िस्से सुनाते जाते। लड़के एक-दूसरे की तरफ देख-देखकर मुस्कुराते रहते और सुनते रहते। हम्मू ख़ाँ को पता था कि यह उमर क्या माँगती है। इस उमर में क्या सुनने की इच्छा होती है। हम्मू ख़ाँ पूरे क़िस्सागो थे, इतना रस लेकर, इतनी जीवंतता के साथ क़िस्से सुनाते थे कि लड़कों को लगता था जैसे उनके सामने ही क़िस्सा चल रहा है।
एक दिन जब गरमी की चिलचिलाती दोपहर में लड़के हम्मू ख़ाँ को घेर कर बैठे थे, तो एक बार फिर से चुड़ैलों का ज़िक्र निकल आया। लड़के ज़िद पर अड़ गए चुड़ैलों के बारे में जानने को लेकर। हम्मू ख़ाँ बहुत देर तक सोचते रहे फिर बोले -देखोगे चुड़ैलों को ? है इतना दम ? लड़के एकदम सकपका गए। यह तो उन्होंने सोचा ही नहीं था। हम्मू ख़ाँ ने फिर कहा -क्यों डर गए, सूख कर गले में आ गई? मियाँ बात करना आसान है और आमने-सामने देखना अलग बात है। जवान-जहान लौंडे हो, चुड़ैलों से डरते हो? अब आगे से कोई मत छेड़ना चुड़ैलों की बात। लड़कों को भी बात लग गई। उस समय तो चले गए लेकिन, ठान ली कि अब तो चुड़ैलों को देखना ही है। आठ दस लड़के हैं, कुछ भी हुआ तो सब एक साथ टूट पड़ेंगे। योजना बनी कि जब शाम थोड़ी उतर जाएगी और रात आने को होगी, तब चुपचाप जाकर एक पेड़ पर चढ़ जाएँगे सारे और बिना आवाज़ के पेड़ों पर लटके रहेंगे। कोई भी आवाज़ नहीं करेगा। जब तक कोई भी एक इशारा नहीं करेगा तब तक पेड़ से उतरेगा भी नहीं कोई। ज़रा भी ख़तरा होगा तो एक साथ कूद-कूद कर भाग लेंगे सारे के सारे। देखेंगे कि कोई चुड़ैल आती है तो ठीक नहीं तो घंटे-दो घंटे के बाद उतर कर आ जाएँगे।
लगभग पूरे चाँद की रात थी। लड़के आम के पेड़ों पर टँगे हुए थे। पत्तों में दबे-छिपे। जब रात होने को थी तो सबसे पहले रास्ते की तरफ से एक साया उभरा। लड़कों ने दम साध लिया। चौपड़े तक आते-आते साया हम्मू ख़ाँ बन गया। लड़कों ने राहत की साँस ली। हम्मू ख़ाँ ने आकर इधर-उधर देखा। चौपड़े में झाँका और फिर चौपड़े की मुँडेर से टिकी हुइ खटिया को बिछा दिया। हम्मू ख़ाँ अपनी खटिया पर लेटे हुए थे। नागझिरी के बाग़ में सन्नाटा फैला हुआ था। पत्ता भी खड़के तो उसकी भी आवाज़ आ जाए। झींगुरों की चिकमिक सन्नाटे को तोड़ती हुई गूँज रही थी। लड़के साँस थामे हुए थे, पता नहीं किस तरफ से चुड़ैलें आ जाएँ? रात और गहरी हुई। क़स्बे की रातें वैसे भी जल्दी हो जाती हैं। और यह तो फुरसत का समय था। खेत में कोई काम था नहीं। एक फसल कट के बिक चुकी थी और दूसरी को बोने में अभी समय था। हम्मू ख़ाँ के कारण लड़के और सन्नाटे में थे, चुड़ैल होती तो उतर कर भाग भी जाते। लेकिन हम्मू ख़ाँ के कारण एक राहत यह हो गई थी कि अब अगर कुछ भी होता है तो कम से कम यहाँ पर हम्मू ख़ाँ तो हैं ही उनको बचाने के लिए।
अचानक हवेली की तरफ से आती हुई पगडंडी पर तीन साए उभरे। झाड़ियों के झुरमुट के बीच से। हम्मू ख़ाँ ने धीरे से खाँसा। तीनों साए धीरे धीरे झाड़ियों के बीच से होकर इस तरफ ही आ रहे थे। चौपड़े की तरफ। आहिस्ता-आहिस्ता। हम्मू ख़ाँ खटिया पर उठ कर बैठ गए। लड़के दम साधे हुए थे। तीनो साए इसी तरफ बढ़ते आ रहे थे। आकर वह तीनो साए ठीक हम्मू ख़ाँ के सामने खड़े हो गए। दो साए कुछ दूर चौपड़े की सीढ़ियों के पास खड़े हो गए और तीसरा साया जो दोनो से कुछ भारी दिख रहा है, वह हम्मू ख़ाँ के पास तक आ गया। यही हैं चुड़ैलें ? पहनावा तो चुड़ैलों का ही है। हम्मू ख़ाँ की आवाज़ आई -सलाम बाई जी साहब, बैठिए। उत्तर में कोई आवाज़ नहीं आई, भारी साया खटिया पर बैठ गया। अचानक नागझिरी के पास से जाते हुए रास्ते पर भी पाँच-छह साए प्रकट हुए। वह भी इस ओर ही आ रहे थे। चाँद इतना तो खिला ही था कि सब कुछ दिखाई दे। यह साए पहनावे के हिसाब से चुड़ैल नहीं थे, भूत थे। यह भी वहीं आकर खड़े हो गए। खटिया के पास। चुड़ैलों ने चेहरे ढँक रखे थे, लेकिन भूतों के चेहरे खुले हुए थे। तेज़ चाँदनी में पहचान भी आ रहे थे वह चेहरे। कुछ-कुछ। पहचान में इसलिए आ रहे थे क्योंकि पहचाने हुए थे। जो लड़के पेड़ों पर लटके थे, उन्होंने देखा कि कुछ पिता हैं, कुछ चाचा हैं, कुछ बड़े भाई हैं और हाँ मामा भी। कुछ भूतों के हाथों में कुछ बोतलें भी  थीं।
भूत हम्मू ख़ाँ के पास खड़े थे, हर भूत कुछ पैसे अपनी जेब से निकाल कर हम्मू ख़ाँ को दे रहा था। लड़के अपने लोगों को हम्मू ख़ाँ को पैसे देते देख कर हैरत में थे। हम्मू ख़ाँ ने पैसे हाथ में लेकर उनको गिना और मुंडी हिला कर इशारा कर दिया। भूत चौपड़े की सीढ़ियों की ओर बढ़ गए। सीढ़ियों पर खड़ी चुड़ैलों ने भूतों को आते देखा तो वह भी सीढ़ियों की ओर बढ़ गईं। धीरे-धीरे उतरते हुए भूत और चुड़ैलें चौपड़े के अंदर गुम हो गए। हम्मू ख़ाँ ने हाथ में रखे पैसे खटिया पर बैठी तीसरी चुड़ैल की ओर बढ़ा दिए। चुड़ैल ने पैसे लेकर उनको अपने हाथ में पकड़े हुए एक थैले समान बटुए में रख लिया और फिर उस बटुए को खटिया के सिरहाने रख दिया। हम्मू ख़ाँ उसी प्रकार से कुछ झुक कर खड़े हुए थे। कुछ देर तक दोनो उसी अवस्था में रहे। फिर खटिया पर बैठे साए ने अचानक हम्मू ख़ाँ को खटिया पर अपने पास खींच लिया। लड़कों की साँसें तेज़ हो गईं। यह सब तो क़िस्सों में ही सुना था। लेकिन चुड़ैल के साथ? चाँद आसमान पर खिला हुआ था। नीचे खटिया पर का मौसम धीरे-धीरे बदल रहा था। चुड़ैल की चादर खटिया के नीचे गिर गई थी और हम्मू ख़ाँ का कुरता पायजामा भी उस चादर के पास ही कहीं पड़ा हुआ था। खटिया के नीचे कपड़ों का एक ढेर सा बन गया था। और ऊपर ? ऊपर अब कोई कपड़े नहीं थे, सब नीचे फेंके जा चुके थे। दो शरीर थे जो केवल चाँदनी पहने हुए थे। या शायद यूँ कि चुड़ैन ने हम्मू ख़ाँ को पहना हुआ था और हम्मू ख़ाँ ने चाँदनी को। दिन भर आम के बाग़ में उदास सी पड़ी रहने वाली हम्मू ख़ाँ की खटिया अब जीवंत हो उठी थी। अब हम्मू ख़ाँ भी नहीं थे, और चुड़ैल भी नहीं थी। अब वह स्त्री और पुरुष थे। लड़के देख रहे थे कि किस प्रकार चौपड़े की एक चुड़ैल हम्मू ख़ाँ को पुरुष बना रही थी। और कल्पना कर रहे थे कि बाक़ी की दो चुड़ैलें भी जो उनके चाचा, पिता, मामा, भाई को लेकर चौपड़े के अंदर गईं हैं, वहाँ भी वह चुड़ैलें उनको पुरुष बना रही होंगी। लड़के दम साधे आम के पेड़ पर टँगे थे, हम्मू ख़ाँ की हिलती-डुलती पीठ पर चाँदनी ठहरने की कोशिश कर रही थी और चौपड़े के अंदर चुड़ैलों के खिलखिलाने, झनझनाने और खनखनाने की आवाज़ें धीरे-धीरे तेज़ होती जा रही थीं।
लड़के धीरे से उतर कर चौपड़े के अँधेरे तरफ वाली मुँडेर के पास खड़े हो गए और चौपड़े के अंदर चल रहा कार्यक्रम देखने लगे। हम्मू ख़ाँ ने लड़कों को देखा, देखता ही रहा, मौन, चुपचाप। बड़ी चुड़ैल ने भी देखा। मगर, चौपड़े के  अंदर जो लड़कों के चाचा, भाई, पिता, मामा टाइप के लोग थे, उन्होंने नहीं देखा। देख भी कैसे सकते थे, अँधेरे में जो थे। लड़के चौपड़े के अंदर का दृश्य देख रहे, जहाँ उनके कई रिश्ते, चट्टानों पर वस्त्रहीन बिछे हुए थे। कुछ देर तक देखते रहने के बाद लड़के धीरे से रास्ते की ओर गए और गहरे अँधेरे में समा गए। 
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उस रात के बाद से सब कुछ बदल गया। सब कुछ बदल गया मतलब यह कि चौपड़े का सारा माहौल ही बदल गया। चौपड़ा अब सचमुच ही भूतिया हो गया। भूतिया हो गया से तात्पर्य यह कि अब वहाँ रात को चुड़ैलों की महफिल सजनी बंद हो गई। अब रात बिरात किसी को वहाँ पर चूड़ियों के खनकने और पायलों के छनकने की आवाज़ें नहीं सुनाई देती थीं। तो क्या उस दिन के बाद इन लड़कों ने कुछ हंगामा मचाया या कुछ ऐसा किया कि जिससे बवाल मचा। नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। असल में तो यह हुआ कि लड़का पार्टी ने धीरे से सत्ता को अपने हाथों में ले लिया। अपने ही परिवार के बड़े पुरुषों द्वारा रात के अँधेरे में जो चौपाल, चौपड़े में लगाई जाती थी, उस चौपाल की सत्ता को लड़कों ने अपने हाथ में ले लिया। और चौपाल का स्थान भी बदल दिया था। चौपड़े की चुड़ैलों को उन्होंने हवेली पर ही वह सब कुछ देना शुरू कर दिया, जिससे उन चुड़ैलों का चौपड़े तक आना बंद हो गया। चुड़ैलों का एकमात्र मीडियेटर हम्मू ख़ाँ तो उनका पहले से ही सेट था। तो कुल मिलाकर हुआ यह कि पहले यह लड़का पार्टी जो दिन भर चौपड़े में धमाल मचाती रहती थी, अब वह हवेली में पड़ी रहती थी। आते पहले ही की तरह चौपड़े पर ही थे, लेकिन उसके बाद बीच के रास्ते से धीरे से हवेली के अंदर बिला जाते थे। ऐसे जैसे भादौ की अँधियारी रात में, बरसते पानी में धीरे से कोई करिया नाग आँख बचा कर घर में बिला जाता है। उसके बाद यह लड़का पार्टी वहीं रहती थी, हवेली के अंदर ही।
बात का स्वभाव है कि वह फैलती ही है। लड़का पार्टी की हवेलीबाज़ी भी सुगबुगाहट की तरह क़स्बे में फैली। फैली, तो परिवार वालों को आपत्ति हुई, स्वभाविक सी बात है। रोका-रोकी और टोका-टोकी शुरू हुई। मगर अब बात रोका-रोकी और टोका-टोकी की कहाँ थी। लड़का पार्टी ने अपनी आँखों से अपने परिवार के पुरुषों को, सम्मानित पुरुषों को चौपड़े की चुड़ैलों के साथ चौपड़े के अंदर उतरते देखा था। उनके पास तो तुरुप का इक्का था। चाचा, मामा, पिता, भाई जैसी उपाधियों के रिश्तों को इन लड़कों ने अपनी आँखों से चौपड़े के अंदर कपड़े उतारते देखा था। उन कपड़ों के साथ ही रिश्ते और उन भारी-भरकत रिश्तों से जुड़े ख़ौफ़ भी उतर गए थे। कपड़े परिवार के पुरुषों ने उतारे थे लेकिन, उस घटना ने लड़कों को नंगा कर दिया था। उसी प्रकार का नंगा जिसके बारे में कहा जाता है कि उससे तो ख़ुदा भी डरता है। हालाँकि अभी भी एक प्रकार की -तृण धरी ओट, या तिनके की मर्यादा को रख कर यह लड़के अपने परिवार के पुरुषों से डील कर रहे थे। इस प्रकार कि मान लीजिए सुरेश के चाचा ने उसे हवेली जाने से मना किया, डाँट-डपट की तो दिनेश ने जाकर उनसे डील कर ली। डील....? डील का मतलब यह कि उनको बता दिया कि उस दिन रात को जब वे चौपड़े की चुड़ैलों के साथ वस्त्रहीन अवस्था में किन्हीं प्राकृतिक कार्यों को संपन्न कर रहे थे, तब पूरी बच्चा पार्टी चौपड़े की मुँडेर से ग्लेडिएटर के दर्शकों की तरह उस प्राकृतिक क्रीड़ा का अवलोकन कर रही थी। यह एक सूचना चाचा, मामा, भाई टाइप के रिश्तों के कस-बल ढीले कर देती थी। धीरे-धीरे उन लड़कों को हवेली में खुल कर आने-जाने का परमिट मिल गया। चौपड़ा वीरान होता गया और हवेली की रौनक लौटने लगी।
हम्मू ख़ाँ का रिश्ता बड़ी चुड़ैल से था और बड़ी चुड़ैल में लड़का पार्टी की कोई दिलचस्पी नहीं थी। लड़का पार्टी तो मँझली और छोटी चुड़ैलों के साथ ही मस्त थी। इसलिए किसी को किसी से कोई परेशानी नहीं थी। हम्मू ख़ाँ अपनी जगह खुश था और लड़के अपनी जगह पर। हम्मू ख़ाँ को भी अब अपना कार्य संपन्न करने के लिए हवेली में ही आने-जाने का सुभीता हो गया था। कभी भी। पहले तो यह था कि रात ढलने का इंतज़ार करना होता था। अब शारीरिक इच्छाएँ भी कोई समय देख कर उठती हैं भला ? पता चला दोपहर में ही बादल घिर आए हैं, बरसात होने लगी है। बरसात को देख कर सच्ची वाला मोर तो नाचता ही है लेकिन, उसके साथ एक और मोर भी नाचता है। वह मोर होता है पुरुष के शरीर में बैठा इच्छाओं का मोर। कमबख़्त बादलों को देखकर ही पंख फैलाने लगता है। जब ये पंख हौले-हौले इधर-उधर अपनी छुअन देते हैं सारी देह सलबलाहट से भर जाती है। ऐसा लगता है कि बस अभी......। लेकिन हम्मू ख़ाँ को रात तक का इंतज़ार करना पड़ता, तब तक सारे बादल बरस-बुरस के जा चुके होते। कीचड़ हो रही होती। मच्छर हो चुके होते। कुल मिलकार बरसात का सारा बना-बनाया माहौल ही विदा ले चुका होता। तो अब तो हम्मू ख़ाँ के भी मज़े थे, जब बरसात हो रही हो तभी.......। जब मोर का नाचने का मन हो तब नाच ले। इसलिए हम्मू ख़ाँ ने भी अपना अघोषित वीटो लड़का पार्टी के पक्ष में ही रखा था। वैसे भी उसके अलावा कोई चारा भी नहीं था। हम्मू ख़ाँ जो अगर वीटो नहीं देते तो लड़का पार्टी तो हम्मू ख़ाँ को दो तरफा घेर लेती। पहला तो जो है वो है ही, दूसरा यह कि हम्मू ख़ाँ मुसलमान थे और चुड़ैलें हिन्दू थीं। हम्मू ख़ाँ को तो लड़कों के पक्ष में झुकना ही झुकना था।
हवेली को सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी पैसों की। जिसके लिए गहरी रात में चुड़ैलें चौपड़े तक जाती थीं। लड़के चूँकि अपने-अपने घरों में उस स्थिति में नहीं थे कि जेबों में हमेशा पैसे रहें, फिर भी उनके लिए इधर-उधर से थोड़ा बहुत गोल-गपाड़ा करना कोई मुश्किल काम भी नहीं था। खलिहान में भरी हुई फसल में से पसेरी-दो पसेरी अनाज अगर उड़ा दिया तो फर्क कहाँ पड़ता है। तो चुड़ैलों का ख़र्च लड़कों के माध्यम से भी चलने लगा था। वैसे भी चुड़ैलों को बहुत ज़्यादा तो चाहिए नहीं था। हवेली थी ही रहने को। लड़का पार्टी भी बड़ा दल था। एकाध का हाथ अगर किसी दिन खाली भी रहे तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। चुड़ैलों को जो भी भुगतान दिया जाता था वह सामुहिक दिया जाता था, चंदे की शक्ल में। इस चंदे के कई रूप होते थे। रुपयों के रूप में भी और दूसरे रूप में भी। जैसे अनूप के पिता की डेयरी थी और सुबह शाम दूध बाँटने का काम अनूप ही करता था। हवेली कांड के बाद से उस दूध में सुबह और शाम चार-चार लीटर पानी बढ़ जाता था। और बढ़ा हुआ चार-चार लीटर दूध हवेली की चुड़ैलों को भोग लगा दिया जाता। सब्ज़ियाँ थीं, फल थे, अनाज था, गन्ने, गुड़ और जाने क्या-क्या तो था लड़कों के पास देने के लिए।  यहाँ पर समय इतिहास में लौट कर चला गया था, वस्तु विनिमय का सिद्धांत एक बार फिर अस्तित्त्व में आ गया था। लड़के वस्तुएँ देते थे और चुड़ेलों से वस्तुएँ प्राप्त कर लेते थे। तुम्हारी भी जय-जय हमारी भी जय-जय।
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उस लड़के का नाम सोनू था जो इस कहानी में एक ट्विस्ट के रूप में आता है। सोनू कहीं बाहर से नहीं आया था। असल में वह इस लड़का पार्टी का ही हिस्सा था। लेकिन चौपड़े की चुड़ैलों का राज़ खुलने से पहले ही वह क़स्बे छोड़ कर जा चुका था। तब तक वह इस लड़का पार्टी का हिस्सा रहा था, जब तक यह गैंग अपनी प्यासों को लेकर चौपड़े के पानी में कूदती थी। शरीर से उठते प्रश्नों को अपने ही हाथों से सहलाती थी। सोनू के अंदर भी यह प्रश्न उठते थे, लेकिन सोनू के अंदर यह प्रश्न कुछ ज़्यादा फनफनाकर सर उठाते थे। ऐसे कि वह चौपड़े के अंदर पड़े पत्थर पर ही अपना गुस्सा उतार देता था। उसकी आँखों में लाल डोरे उतर आते थे। उसे कुछ भी नहीं सूझता था। बाकी लड़कों के अंदर अगर भट्टियाँ थी, तो सोनू के अंदर एक पूरा ज्वाला मुखी था, जो अपना लावा निकाल देने के लिए उबाल मारता रहता था। यही सोनू अपने सुलगते हुए सवालों को लेकर क़स्बे से चला गया था। चला गया था या भेज दिया गया था आगे की पढ़ाई के लिए। शहर भेज दिया गया था उसे। जाते समय उसकी आँखों में उम्मीदें थीं, सपने थे। सपने, पढ़ाई या कैरियर के नहीं थे, ये सपने तो क़स्बा का कोई भी लड़का नहीं देखता था। बाप-दादाओं की ज़मीनें थीं, खेती-बाड़ी थी, वही कैरियर थी। तो सोनू भी जो सपने लेकर गया था वह सपने, पढ़ाई कैरियर जैसी फालतू चीज़ों के नहीं थे। सपने थे देह में उठते हुए सवालों के हल होने के सपने। अपने अंदर के ज्वालामुखी को किसी अँधेरी ख़ला में उड़ेल कर ख़ाली कर देने के सपने। शहर तो वैसे भी सपनों की मंज़िल होता है। क़स्बा अपने हर सपने को पूरा करने के लिए शहर की ओर देखता है। सोनू भी सपनों की लाल-सुनहरी चिंदियाँ आँखों में लिए शहर की ओर गया था। मगर कुछ ही दिनों में अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर वापस क़स्बे में लौट आया था।
सोनू पहले हवेली की मंडली में कुछ झिझकते हुए आया, क्योंकि वह चौपड़े की उस चुड़ैलों वाली रात का दर्शक नहीं था। उस रात के जो दर्शक थे वह सब तो झिझक-विझक जैसी चीज़ों को छोड़-छाड़ कर हवेली का हिस्सा बन चुके थे। हवेली अब उनका अड्डा थी। सोनू भी उस अड्डे में आया तो हवेली ने उसे वह सब दिया जो उसे चाहिए था। जिस ज्वालामुखी को वह अपने अंदर दबाए फिरता था, वह हवेली में आकर फूट गया। फूटा तो सोनू भी फूटा। उसने वह सब कुछ बताया जो उसके साथ शहर में हुआ था। लड़का पार्टी और चुड़ैलों ने बैठकर उसकी पूरी कहानी को सुना। सुना तो सब सन्न रह गए।
जो कहानी सोनू ने इन लोगों को सुनाई वह किसी और को नहीं सुनाई थी। और यह कहानी ही सोनू के शहर से क़स्बे वापस आने की असली कहानी थी। कहानी कुछ इस प्रकार थी । असल में सोनू जब शहर गया तो कॉलेज, पढ़ाई, जैसी बातों से ज़्यादा चिंता उसे थी उस बात की जो सवाल बनकर उसके शरीर में लहराती थी। वह बुझना चाहता था। और आते ही उसने सबसे पहले तलाश शुरू की उस ठिकाने की जहाँ पर वह अपने आप को बुझा सके। जो जुनून, जो दीवानापन उसके दिमाग़ पर चौबीसों घण्टे सवार रहता है, उसका कुछ उपचार हो सके। लेकिन यह कोई आसान काम तो था नहीं। पुराने समय में हर शहर में इस प्रकार के कुछ ठिकाने होते थे, लेकिन समय के साथ वह ठिकाने भी समाप्त हो गए। अब क्या किया जाए ? सोनू की तलाश समाप्त हुई एक समाचार पत्र में छपे विज्ञापन पर। विज्ञापन में लिखा था आइये मीठी बातें करिए। मीठी बातें ? सोनू का दिमाग़ कुछ ठनका। मगर उस विज्ञापन में एक कुछ कम कपड़े पहने हुई लड़की का चित्र भी लगा हुआ था। विज्ञापन उसी समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ था, जिसके मालिक ने कुछ दिनों पहले किसी संस्था में भाषण देते हुए कहा था कि महिलाओं को ठीक कपड़े पहनने चाहिए, उनके द्वारा पहने जा रहे ग़लत कपड़ों के कारण ही बलात्कार की घटनाएँ बढ़ रही हैं। बाद में उन मालिक के ख़िलाफ़ कुछ महिलाओं ने मोमबत्ती लेकर एक प्रदर्शन भी किया था। मालिक को भी बुरा नहीं लगा था, समाचार पत्र के मालिक थे जानते थे कि पब्लिसिटी के टोटके क्या होते हैं। उसको पता था कि मोमबत्तियाँ पब्लिसिटी के लिए जलाई जाती हैं और मशालें क्रांति के लिए, इसलिए जब तक मोमबत्तियाँ जलाईं जा रही हैं तब तक घबराने की कोई बात नहीं है।  ख़ैर तो बात यह चल रही थी कि उन आदर्शवादी मालिक के समाचार पत्र में ही वह विज्ञापन प्रकाशित हुआ था। उसके साथ कुछ नंबर भी दिए गए थे। सोनू ने कुछ झिझकते हुए उस नंबर पर कॉल किया। मीठी बातें हुईं और बहुत सी मीठी बातें हुईं। जब कॉल काटा तो पता चला कि अंतर्राष्ट्रीय कॉल के हिसाब से पैसे कट गए हैं। लेकिन वह कोई बड़ी बात नहीं थी। सोनू अभी क़स्बे से आया था और जेब में ख़ूब माल था। असली बात यह थी कि बातें बहुत ज़्यादा ही मीठी हुईं थीं। बातें, हालाँकि केवल बातें ही थीं, उनसे कुछ भौतिक कार्य तो संपन्न नहीं होना था। लेकिन दिमाग़ में जो रसायन उत्पन्न होते हैं वह तो बातों से भी हो जाते हैं। और दिमाग़ में इस बातचीत के दौरान भरपूर मात्रा में रसायनों की उत्पत्ति हुई थी।
यह जो रसायनों की उत्पत्ति थी यह आने वाले दिनों में और, और, और का कारण बनने वाली थी और बनी भी। सोनू ने उसके बाद कई-कई बार उस नंबर पर कॉल किए। हर बार कॉल काटने के बाद आया हुआ मैसेज एक बड़ी राशि कट जाने की सूचना देता था।  हर बार किसी नई आवाज़ से बातें होती थीं। सोनू चाहता था कि कल जिससे हुई थी उससे से ही हो लेकिन, वैसा नहीं होता था। सोनू की इच्छा थी कि अगर कोई रिपीट में एक बार भी मिल जाए तो उससे कुछ आगे का सिलसिला जोड़ा जाए। मगर वैसा हो नहीं पा रहा था।
असल में ऐसा होना तकनीकी रूप से संभव भी नहीं था। क्योंकि जिस कंपनी के नंबर पर बातें होती थीं उस कंपनी ने पूरे भारत में क़रीब पाँच हज़ार से ज़्यादा मोबाइल कनेक्शन ग़रीब और ज़रूरतमंद महिलाओं तथा लड़कियों को दिये थे। इन लड़कियों में ज़्यादातर छोटे क़स्बों की लड़कियाँ थीं। इन मोबाइल नंबरों पर ही वह मीठे-मीठे कॉल आते थे। इन महिलाओं को उन कॉल्स को सुनने के सौ से डेढ़ सौ रुपये रोज़ मिलते थे। चार शर्तें इन महिलाओं को पूरी करनी होती थीं। पहली यह कि मोबाइल किसी भी स्थिति में स्विच्ड ऑफ नहीं किया जाएगा। दूसरी सामने वाला आदमी जो भी, जैसी भी बातें करे, इनको फोन नहीं काटना होगा, हाँ में हाँ मिलाना होगा और अपनी तरफ से भी बातें करनी होंगी। तीसरी शर्त यह कि सभी कॉल्स को रिसीव करना होगा और दिन भर में कम से कम तीन घंटे की बात करनी ही होगी, यह उनका उस दिन का टारगेट रहेगा। टारगेट पूरा न होने पर उस दिन का पैसा नहीं दिया जाएगा। मोबाइल स्विच्ड ऑफ मिलने, कॉल रिसीव नहीं करने पर भी पूरे दिन का पैसा काट दिया जाएगा। तीन से ज़्यादा बार मोबाइल स्विच्ड ऑफ मिलने पर पूरे महीने का पैसा काट लिया जाएगा। और यदि ग्राहक की बात सुनकर फोन काट दिया तो भी पूरे महीने का पैसा कट जाएगा। चौथी शर्त यह कि किसी भी हालत में ये अपनी कोई भी वास्तविक जानकारी कॉल करने वाले को नहीं बताएँगीं। सब कुछ झूठ ही बताना है। इन शर्तों के बाद भी ग़रीब और ज़रूरतमंद कई महिलाएँ अपना परिवार चलाने के लिए मोबाइल कंपनी के इस गोरखधंधे से जुड़ी हुईं थीं। मोबाइल कंपनी ने जो नंबर विज्ञापन में दे रखे थे उन पर कॉल करने से कॉल सीधे आई.एस.डी. से ही शुरू होता था। ज़ाहिर सी बात है कि सोनू कितना ही सर पटक लेता उसे एक ही लड़की से दूसरी बार बात करने का मौका, किसी दैवीय संयोग के अलावा नहीं मिल सकता था। पाँच हज़ार में दोहराव की गुंजाइश ही कितनी कम थी।
लेकिन कहते हैं न कि जहाँ चाह वहीं पर राह। उस दिन बात करने वाली लड़की शायद नई थी, उसे नहीं पता था कि वह अपने ग्राहक से जो भी बातें करती है, उन बातों को कंपनी के लोग सुनते हैं, रिकार्ड भी करते हैं। क़रीब घंटे भर की बातचीत के बाद लड़की सोनू के प्रति पिघलने लगी। दोनों के बीच मीठी बातों से इतर पर्सनल बातें होने लगीं। इस प्रकार की स्थिति में अक्सर कंपनी के लोग बीच में ही कॉल को डिस्कनेक्ट कर देते थे। लेकिन इससे पहले कि कंपनी की ओर से उसका कॉल काटा जाता, उसने अपना वास्तविक मोबाइल नंबर सोनू को उपलब्ध करवा दिया। वह अपने शहर और पते के बारे में कुछ और जानकारी उपलब्ध करवाती उससे पहले ही कॉल काट दिया गया। लेकिन उससे क्या होना था ? सोनू के पास तो लड़की का मोबाइल नंबर आ चुका था। लड़की से सीधे संपर्क करने पर पता चला कि लड़की उस शहर की नहीं थी, जिस शहर में सोनू रह रहा था। दूसरे किसी शहर की थी। फिर भी बातचीत तो हो ही सकती थी। किसी अज्ञात के साथ मीठी-मीठी बातें करने से ज़्यादा आनंद देता है, किसी ज्ञात के साथ करना।
कहानी में मोड़ ठीक अगले ही दिन तब आ गया, जब लड़की का कॉल सोनू के पास आया। उसने सोनू को, सोनू के ही शहर के एक स्थान का पता दिया कि मैं तुमसे मिलने आ गयी हूँ, इस जगह पर ठहरी हूँ, आ जाओ। सोनू को तो मानो पंख ही लग गए। मीठी बातें के स्थान पर, मीठी घातें करने का मौका जो मिल रहा था। सोनू तयशुदा समय पर उस स्थान पर पहुँच गया। वहाँ वह सब कुछ नहीं था, जो वह सोच कर आया था। वहाँ कुछ और था। वह वास्तव में एक सेक्सटॉर्शन केन्द्र था। सोनू का वहाँ सेक्सटॉर्शन किया गया। और जो कुछ भी किया गया उस सब का बाक़ायदा तेज़ हेलाजन लाइटों की चुँधियाती हुई रौशनी में वीडियो भी बनाया गया। महँगे विदेशी कैमरों से हाई डेफिनेशन वीडियो। जैसे किसी कमर्शियल फिल्म की शूटिंग होती है, ठीक उसी प्रकार से। लड़कियों और सोनू की कुछ भिन्न-भिन्न प्रकार की वीडियो बनाई गईं, इसके बाद अंत में सोनू की जमकर पिटाई की गई। इस प्रकार की हड्डी नहीं टूटे, किन्तु हर स्थान पर चोट आए। इस पिटाई का भी पूरा वीडियो बनाया गया। सोनू का मोबाइल, पैसे, एटीएम कार्ड, घड़ी आदि जो कुछ भी उसके पास था कपड़ों को छोड़कर, वह सब कुछ छीन लिया गया। इस मोबाइल नंबर को फिर चालू नहीं करवाने और किसी को कुछ नहीं बताने की धमकी दी गई। उसके बाद एक कार में बिठा कर कहीं छोड़ दिया गया। कहानी सुनते ही पूरी लड़का पार्टी और चुड़ैलों के बीच सन्नाटा खिंच गया था।
***
आते-आते हवेली के माहौल में सोनू भी धीरे-धीरे घुल गया और सहज होता चला गया। अब उसे शहर की उस घटना की कील चुभती नहीं थी। मँझली चुड़ैल उस पर कुछ ज़्यादा ही मेहरबान रहती थी। बल्कि यूँ कहें तो भी ग़लत नहीं होगा कि अब मँझली चुड़ैल पूरी  तरह से सोनू के लिए ही आरक्षित हो गई थी। बड़ी चुड़ैल पहले से ही हम्मू ख़ाँ के लिए आरक्षित थी, तो अब लड़का पार्टी के लिए बस छोटी चुड़ैल ही बची थी।
एक दिन अचानक जब मँझली चुड़ैल ने सोनू से उस जगह के बारे में पूछा जहाँ सोनू को ले जाया गया था, तो सोनू कुछ असहज हो गया। क्या मतलब है यह पूछने का, जानने का। मगर मँझली चुड़ैल के दिमाग़ में तो और ही कुछ था। मँझली चुड़ैल को सोनू द्वारा बताया गया मोबाइल पर बातें करने का काम बहुत मुफ़ीद नज़र आ रहा था। सोनू को राज़ी करने में मँझली चुड़ैल को बहुत ज़्यादा देर नहीं लगी। सोनू को भी लगा कि जो कुछ मँझली चुड़ैल कह रही है, उसमें दम तो है। सोनू आख़िर में मान गया मगर, सब कुछ नए सिरे से तलाश करना पड़ा। हालाँकि बात बहुत पुरानी नहीं हुई थी, इसलिए सूत्र उसे बहुत ही जल्दी मिल गए। वह सूत्र जो कंपनी से जुड़े हुए थे। समय लगा। इस बीच कंपनी के कुछ लोग आकर हवेली देख गए। यह कंपनी विज़िट थी। और अंततः तीनों चुड़ैलों को कंपनी की ओर से मोबाइल नंबर प्रदान कर दिए गए। 
काम जब शुरू हुआ तो चुड़ैलों को बात करने में कुछ झिझक होती थी। ग्राहक बहुत खुली बात करना चाहता था, लेकिन चुड़ैलें ज़रा दबी-छिपी बातें करती थीं। फिर एक दिन सोनू ने मँझली चुड़ैल को बताया कि ग्राहक क्या चाहता है। सोनू ने एक ग्राहक का कॉल अटैंड किया और उसके साथ लड़की की आवाज़ में बात की। खुली-खुली बातें। मँझली चुड़ैल की आँखें, कान और दिमाग़ सब खुलता गया। उसके बाद मँझली चुड़ैल ने मानो पूरे काम के सूत्र अपने हाथ में ले लिए। इस प्रकार से कि जो ग्राहक पहले दस मिनिट तक बात करता था वह अब दो-दो घंटे चिपका रहता। मँझली चुड़ैल को सोनू ने धीरे-धीरे पूरा ट्रेण्ड कर दिया। उस अनुभव से, जो उसने कंपनी के मोबाइलों पर बात कर-करके सीखा था। मँझली चुड़ैल अब दक्ष हो गई थी। उसने बाकी दोनों चुड़ैलों को भी धीरे-धीरे ट्रेण्ड कर दिया। काम ज़ोरों से चल निकला। चुड़ैलें अब खुलकर बातें करती थीं। बिना किसी झिझक के, बिना किसी संकोच के। इस प्रकार, कि कई बार सामने से बातें कर रहा ग्राहक भी शरमा जाता था। चुड़ैलों को समझ में आ गया था कि केवल बातें ही तो करना है, वह भी उसके साथ जो उनको जानता तक नहीं है। किसी अज्ञात के साथ केवल बातें करने में क्या बुरा है। यह ब्रह्मज्ञान प्राप्त होते ही चुड़ैलों के दिव्य नैत्र भी खुल गए थे।
चुड़ैलें पूरा दिन व्यस्त रहती थीं। काम फैल रहा था। तीनों मोबाइल दिन भर व्यस्त रहते थे। चुड़ैलें चाहती थीं कि कुछ और मेाबाइल हों लेकिन उन पर बात करेगा कौन ? अब हवेली को कुछ और चुड़ैलों की आवश्यकता थी। मँझली चुड़ैल ने अपना जाल फैलाया। कुछ ग़रीब,  ज़रूरतमंद महिलाओं और लड़कियों को पैसों की चमक दिखाई। चमक ने कुछ को खींचा और वो हवेली के दरवाज़े तक आ गईं। दरवाज़े से हवेली के कमरे तक लाने का काम मँझली चुड़ैल ने किया। जो कमरे तक आईं वो चुड़ैल बन गईं। मंझली चुड़ैल ने उनकी गरदन के पीछे दाँत गड़ा कर अंग्रेज़ी फिल्मों की तरह कुछ ख़ून-वून तो नहीं चूसा मगर, कुछ ऐसा ज़रूर किया कि चुड़ैलों की संख्या बढ़ गई। अब हवेली में कुछ और चुड़ैलें हो गईं थीं। अब कुछ कढ़ाई, कशीदाकारी के काम भी हवेली में शुरू किये गये। दिखाने के लिए कि हवेली में यह काम किया जा रहा है। नई चुड़ैलें कानों पर हैडफोन लगाए हवेली के अंदर के कमरों में कशीदाकारी करती रहतीं। या यूँ कहें कि कशीदाकारी करने का नाटक करती रहतीं, असल काम तो हैडफोन से चलता रहता था। अब हवेली एक हस्त शिल्प केन्द्र बन चुकी थी।
***
उस बात को अब दो साल से भी अधिक हो गए हैं। कॉल सेण्टर में कॉल अटेण्डर चुड़ैलों की संख्या अब काफी बढ़ गई है। हवेली के एक हिस्से को तुड़वा कर वहाँ पर तीन चार वातानुकूलित हॉल बना दिए गए हैं। इनमें कई सारे साउंड प्रूफ कक्ष हैं। इन कक्षों में बैठ कर चुड़ैलें अपना काम करती रहती हैं। मँझली चुड़ैल अब वास्तव में ही कंपनी की सीईओ है। कई सारे समाज सेवा के काम करवाती रहती है। आए दिन उसके फोटो समाचार पत्रों में छपते रहते हैं। सोनू और उसने शादी तो नहीं की लेकिन, बात शादी जैसी ही है। सोनू के वह वीडियो जो कंपनी ने  बनाए थे, कई सारी पॉर्न वैब साइटों पर इंडियन सैक्शन में उपलब्ध हैं। सोनू और मँझली चुड़ैल अक्सर इनको देखते हैं, हँसते हैं। चुड़ैलें अब हवेली से निकल कर विरचुअल हो गईं हैं। हवा में फैल गईं हैं, सिग्नल्स के रूप में, फ्रिक्वेंसी के रूप में। अब वे हर किसी के मोबाइल में हैं। मीठी बातें करती हुई, कुछ लाइव ध्वनियाँ पैदा करती हुईं। चुड़ैलें अब रूप बदल-बदल कर आ रही हैं। अब उनका कोई नाम कोई ठिकाना स्थायी नहीं है। अब वह चौपड़े की चुड़ैलें नहीं रहीं, अब वे ब्रह्माण्ड की चुड़ैलें हो चुकी हैं। पूरे के पूरे विरचुअल ब्रह्माण्ड की चुड़ैलें। अब वे कहीं से भी झपटती हैं। जैसे आकाश में चमकने वाली बिजली काली वस्तु को देख कर झपटती है, वैसे ही चुड़ैलें भी काले मोबाइल को किसी के भी हाथों में देख कर झपट्टा मारती हैं और समा जाती हैं उसमें। और उसके ज़रिए मोबाइल धारी के कानों में, आत्मा में, मन में। चुड़ैलें फैलती जा रही हैं, फैलती जा रही हैं, फैलती जा रही हैं। 
(समाप्त)

लव जिहाद उर्फ उदास आँखों वाला लड़का...... (कहानी : पंकज सुबीर), साभार 'नया ज्ञानोदय' फरवरी 2016




लड़की का रंग शाम के डूबते हुए सूरज का रंग था। वैसे तो सूरज डूबने से पहले कई रंग बदलता है। डूबने वाली हर चीज़ कई रंग बदलती है। शायद इस कोशिश में कि किसी सूरत किसी रंग तो डूबने से बचा जाए। ख़ैर तो डूबते सूरज के उस रंग वाली लड़की थी जो रंग लाल और नारंगी के बीच आता है। कभी कभी पूरा आसमान भी उस रंग में रंग जाता है। यहाँ से वहाँ तक। लड़की की उम्र देह में सुगंध के कल्ले फूटने वाली उमर थी। अँखुआने की उमर थी। लड़की क़स्बे के सरकारी स्कूल में पढ़ती थी। प्राइवेट स्कूल में इसलिए नहीं पढ़ती थी कि परिवार के लोग उसे केवल लड़कियों के स्कूल में पढ़ाना चाहते थे। प्राइवेट स्कूल जो क़स्बे मे था वो को एड था। परिवार ऐसा क्यों चाहता था, इसकी चर्चा आगे। दो चोटियों में लाल रिब्बन बाँधे, सफेद शलवार तथा आसमानी रंग की कुरती पर सफेद दुपट्टा डाले स्कूल जाती थी। समूह में जाती थी। समूह में इसलिए कि सुरक्षित रहे। सुरक्षित...? किससे...? हम आप से। स्कूल में उसका ये अंतिम साल था। अगले साल उसको कॉलेज जाना था। कॉलेज अभी से उसके सपनों में आता था। कॉलेज, जो उसे सफेद आसमानी रंग की सरकारी यूनिफार्म से मुक्ति दिलाने वाला था। उसके सपनों में रंग भरने वाला था। लड़की के पास अपना मोबाइल नहीं था। मगर उसकी इच्छा थी कि उसका एक हो। मोबाइल। मोबाइल उसे सपनों के दरवाज़े को खोलने वाली चाबी लगता था। वो मोबाइल में गाने डाल कर उनको हैडफोन में लगा कर सुनना चाहती थी। गाने जो इन दिनों चल रहे थे -हम तेरे बिन अब रह नहीं सकते, तेरे बिना क्या वजूद मेरा.... टाइप के गाने। अभी लड़की को पता नहीं था कि ये गाने उसे क्यों अच्छे लगते हैं, लेकिन वो इनको अकेले बैठ कर देर तक सुनना चाहती थी। उसने अपनी कॉपी में उन सब गानों की एक लिस्ट बना रखी थी जो वो सुनना चाहती थी। ये लिस्ट घटती-बढ़ती रहती थी। लड़की का परिवार अच्छा संपन्न परिवार था। चाहता तो उसे अभी मोबाइल दिला सकता था। मगर नहीं, क्यों...? उसकी चर्चा भी आगे।
लड़की जहाँ रहती थी वो एक क़स्बा था। न गाँव, न शहर। बीच का। भूतकाल का गाँव, भविष्य का शहर। कुछ ऊँघता हुआ और अनमना सा क़स्बा था। जहाँ दोनों रंग लगभग बराबर बराबर फैले हुए थे। हरा रंग भी और गाढ़ा सिंदूरी रंग भी। रह रह कर दोनों रंग आपस में टकराते भी रहते थे। हैरत की बात ये होती की जब भी दोनो रंग टकराते तो तीसरा रंग गाढ़ा लाल कत्थई बनता। जो सड़कों पर दीवारों पर, इधर, उधर बिखरा मिलता। रंग विज्ञान के हिसाब से तो दोनों को मिलाने पर गाढ़ा लाल रंग नहीं बनना चाहिए, पर बनता था। कुछ दिनों तक ये गाढ़ा लाल रंग यूँ ही बिखरा रहता। फिर बारिश हो जाती और सब धुल जाता। दीवारों पर से, सड़कों पर से, हर जगह से। सामान्य दिखने लगता। मगर वो गाढ़ा लाल रंग कहीं जाता नहीं था। लोगों के अंदर उतर जाता था। स्याह काले रंग में बदल कर। फिर इंतज़ार करता था कि कब मौक़ा मिलते ही दोनों रंगों को आपस में टकरा दे और कब वो फिर निकल पड़े। क़स्बे का मानना था कि लड़कियों को हवा और पानी से बचा कर रखना चाहिए। अचार की तरह। अचार और लड़कियाँ दोनो ही हवा और पानी से ख़राब हो जाते हैं। सो क़स्बा ऐसा करता भी था।  मगर इधर कम्प्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल के माध्यम से जो हवा और पानी आने लगा था उसको रोकने में बड़ी परेशानी आ रही थी क़स्बे को। जो दिखता हो उसे तो रोका जा सकता है पर जो दिखता ही नहीं हो उसे...? अब आपने तो अचार को ख़राब होने से बचाने के लिए बरनी में बंद कर दिया मगर जो हवा और पानी ही बरनी के अंदर छिप-छिपा के पहुँच गए तो...? तो हवा और पानी छिप-छिपा कर लड़कियों तक पहुँचने लगे थे। बँद पड़े दरवाज़ों, खिड़कियों और रौशनदानों की दरारों से छन-छन कर।
लड़की का परिवार डूबते सूरज के उस गहरे सिंदूरी रंग में गहरा रंगा हुआ परिवार था। गाढ़ा और गहरा रंग। इतना गाढ़ा और गहरा कि ज़रा अँधेरे में देखो तो काला ही दिखे। गाढ़े और गहरे को काला होने में समय नहीं लगता। परिवार का मुखिया लड़की का पिता था। पिता, जिससे लड़की ने आज तक कभी बैठ कर बात नहीं की थी। कभी उसके कंधे पर लाड़ से झूली नहीं थी। हालाँकि वो ऐसा करना हमेशा चाहती थी। मगर पिता... पिता था। लड़की का पिता बहुत कम मुस्कुराता था। हँसता तो कभी था ही नहीं। जबकि लड़की को हँसना और मुस्कुराना बहुत पसंद था। मगर ये दोनों काम वो घर में नहीं कर पाती थी। क्योंकि पिता को ये पसंद नहीं था। लड़की ने अपनी माँ को भी ये दोनो काम करते नहीं देखा था। लड़की स्कूल में अपनी सहेलियों के साथ हँसती थी। हँसती थी मगर मास्टरों से बचकर, क्योंकि सारे मास्टर उसके पिता के मुँहलगे थे। यदि कोई भी मास्टर हँसते देख लेता तो विशेष रूप से यही बात उसके पिता को बताने शाम को घर आ जाता। भैया जी आज बिटिया हँस रही थी स्कूल में, ज़रा ध्यान रखियेगा। मास्टर को पिता के सामने अपने नंबर बढ़ाने होते थे। जब कभी पिता नहीं होते तो लड़की टीवी पर कॉमेडी शो लगा कर हँसती थी। और देखती थी कि जिस बात पर वो हँस हँस कर लोट पोट हो रही है, उस पर उसकी माँ कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रही है। बिटिर-बिटिर ताकते हुए सब्ज़ी काट रही है। लड़की ऐसे भी नहीं हँसना चाहती थी। ऐसे मतलब कॉमेडी शो पर हँसना। वो दूसरे तरीके से हँसना चाहती थी। बिना बात के हँसना। बिना कारण के हँसना। खिल-खिल, खुल-खुल हँसना। हाथ उठा कर हँसना। अकेले में हँसना। लेकिन उसे पता नहीं था कि वो इस प्रकार हँसना क्यों चाहती है।
लड़की का पिता ऐसा ही था। वो राजनीति में था। उसी रंग की राजनीति में, जिस रंग का वो था। गाढ़े सिंदूरी रंग की राजनीति में। राजनीति में अच्छी खासी हैसियत के साथ वो था। वो अपने क़स्बे और आस पास का मण्डल अध्यक्ष था। मण्डल का मतलब वो मण्डल नहीं, बल्कि एक तहसील का इलाका। उसके पास और उसकी पार्टी के पास अपने रंग की रक्षा की जिम्मेदारी थी। ये पार्टी ही असल में उस रंग की रक्षा के लिए बनी थी। उस रंग की रक्षा का मतलब था परम्पराओं की रक्षा करना। परंपराएँ जिनमें लड़की को को एड में नहीं पढ़ाना, मोबाइल से दूर रखना और हँसने मुस्कुराने से भी दूर रखना शामिल था। और हाँ हरे रंग से भी। गाढ़े हरे रंग से। न जाने क्या आकर्षण था एक दूसरे के प्रति हरे और गाढ़े सिंदूरी रंग में कि एक दूसरे की तरफ खिंच पड़ते थे। शायद ये कन्ट्रास्ट का खिंचाव था। जैसे आँखें नए दृश्य देखना पसंद करती हैं, नाक नई गंध सूँघना, कान नई ध्वनियाँ सुनना और ज़बान नए स्वाद चखना वैसे ही देह....। देह तो देखती भी है, सूँघती भी है, सुनती भी है और चखती तो है ही। तो देह भी तो चाहती ही होगी कि जो कुछ है उससे हट कर कुछ नया हो। नया... या फैण्टेसी...? अब नए में क्या हो सकता है। देह तो देह ही है। तो ये कि दूसरे रंग की देह मिले। शायद वो कुछ अलग होती हो। अलग दिखे, अलग गंध, अलग ध्वनि और अलग स्वाद। इसी नये की तलाश में  ये रंग एक दूसरे की तरफ खिंचते थे। इल्ज़ाम ये भी था कि हरा रंग इस खिंचाव के लिए बाक़ायदा कार्य कर रहा है। योजनाबद्ध तरीके से। प्रेम द्वारा धर्म युद्ध। हरे रंग का विस्तार करने के उद्देश्य से। अपनी तरफ खींचना और फिर अपने रंग में रँग कर हरा बना लेना। हमेशा के लिए। गाढ़े सिंदूरी रंग की लड़कियों को इसीलिए झुण्ड में स्कूल भेजा जाता था। और गायों को भी। जंगल की तरफ। लड़कियों और गायों दोनों को हरे रंग से ख़तरा है ऐसा लड़की के पिता तथा पिता जैसे दूसरे लोगों का मानना था।
लड़का गाढ़े हरे रंग का ही था। कहानी तो तभी बननी थी जब लड़का हरे रंग का हो। कहानियाँ बनती ही तभी हैं तब कुछ अलग होकुछ असामान्य हो। लड़का सुंदर था, आकर्षक था। वैसे कहा ये जाता था कि हरे रंग के लड़के सुंदर और आकर्षक होते ही हैं। कहा ये भी जाता था कि हरे रंग के लड़के कुछ खिला कर दूसरे रंग की लड़कियों को अपने वश में कर लेते हैं। जो भी हो मगर लड़के में सब कुछ आकर्षक था। किसी क़स्बे की लड़की के फिल्मी हीरो की तरह। लेकिन उसकी आँखें उदास थीं। लड़का, लगभग लड़की की उम्र का ही था। देह में उमर यहाँ वहाँ से उग रही थी। कहते हैं कि एक उम्र ऐसी होती है जिसमें हर कोई ख़ूबसूरत दिखता है। लड़का उसी उम्र में था। मगर वो उम्र के कारण ख़ूबसूरत नहीं था, सचमुच ही था। मोटर साइकिल पर सवार होकर निकलता तो हवा भी बोसे लेती। लड़का वो सब नहीं करता था जो हरे रंग के लड़के अमूमन करते थे। मसलन सफेद-काले चौखाने का गमछा गले में डालना, सिर पर गोल जालीदार टोपी पहनना आदि आदि। ये सब तो उसने कभी नहीं किया। त्यौहार के दिन भी नहीं। लड़का अपनी स्टाइल में रहता था। जो मन करता वो पहनता। मरजाना ऐसा था कि जो पहन लेता वो ही उस पर जमता। लड़के का पिता भी राजनीति में था। छोटी मोटी पार्षदी के चुनाव अपने इलाक़े से लड़ता और जीतता भी था। मिलनसार था। सबके सुख दुख में शामिल होता था। इसीलिए न केवल हरे वोट बल्कि दूसरे रंग के वोट भी उसे मिलते थे। आर्थिक स्थिति ठीक ठाक थी। ठीक ठाक क्या, अच्छी ही थी। क़स्बे में एक बिजली के सामान की दुकान थी। छुट-पुट सामान बेचने के साथ घरों में बिजली फिटिंग और रिपेयरिंग का काम था। पास के एक गाँव में खेती की थोड़ी ज़मीन भी थी। तालाब से लगी हुई। ज़मीन कुछ सालों पहले ही ख़रीदी थी। प्रापर्टी के भावों में बूम बूम होने से पहले। कोई ज़रूरतमंद आदिवासी बेच रहा था। ज़रूरत बड़ी थी, सस्ती मिल गई, सो ले ली। दुकान, खेती और राजनीति। लड़का स्कूल की पढ़ाई पूरी करके कॉलेज में था। कॉलेज में एडमीशन ले लिया था, कॉलेज में जाना तो होता नहीं था इसलिए दिन भर पिता की दुकान पर बैठता था। लड़के का पिता मिलनसार था सो लड़का भी वैसे ही था। पिता पर पूत बाप पर घोड़ा....। उसके दोस्त हरे रंग के तो थे लेकिन उससे ज्यादा दूसरे रंग के थे। सबके घरों में उसका आना जाना था। दुकान बिजली की थी सो ऐसा कौन सा घर होगा जिसे बिजली वाले बंदे की महीने में दो चार बार ज़रूरत न पड़ती हो।
लड़का दुकान से उठकर अपनी बहन को स्कूल छोड़ने और वापस लेने जाता था। कहानी की माँग के हिसाब से ऐसा नहीं किया जा रहा है लेकिन, हक़ीक़त यही थी कि लड़के की बहन लड़की के साथ ही पढ़ती थी। जो न पढ़ती तो हरा लड़का और सिंदूरी लड़की कहाँ से मिलते। मगर पढ़ती थी सो पढ़ती थी। लड़का स्कूल के बाहर ही अपनी बहन को छोड़कर चला जाया करता था। चूँकि लड़कियों का स्कूल था इसलिए अंदर तो जा नहीं सकता था। अपनी मस्ती में आता और बहन को स्कूल के बाहर उतार कर मोटर साइकिल को घुमाता और वापस चला जाता। हवा के परों पर सवार होकर आता और लौट जाता। कहावत की भाषा में कहें तो आँख उठाकर भी इधर उधर नहीं देखता था। सुनता भी नहीं था, कानों में मोबाइल के हैडफोन के प्लग जो फँसे रहते थे। बेपरवाह था सबसे। आस पास की पूरी दुनिया से बेपरवाह। अपने आप से ही प्यार करता हुआ। नारसीसस की तरह। या शायद अतिरिक्त सावधानी बरतता था। सावधानी इसलिए कि पिता ने कह रखा था सावधानी बरतने को। वही प्रेम द्वारा धर्म युद्ध की चर्चा के चलते। पिता राजनीति में था इसलिए आशंकित रहता था। कहीं लौंडे से कोई ग़लती हो गई तो जमी जमाई राजनीति चौपट। आग का रंग तो एक ही होता है और आग, रंग देखकर चीज़ों को अपने लपेट में नहीं लेती। और ये जो आशिक़ी की आग है, ये तो असली आग से भी ख़तरनाक होती है। नज़र से दिल और दिल से देह तक, एक एक कर, जब तक बारी बारी सब को नहीं जला देती, तब तक चैन नहीं लेती। और चैन तो उसके बाद भी लेती हो, ऐसा भी नहीं है। जब देह तक पहुँचती है तो फिर-फिर जलाती है, और... और... और...। इस सिरे से, उस सिरे से..।
उन दिनों आशिक़ी 2 फिल्म आई ही थी। लड़की उसके गानों को इधर उधर से सुनती और गानों के बोलों को अपने अंदर चुपके चुपके बीजती थी। सब झूठे-झूठे वादे थे उनके, चल पीछे-पीछे आया तू जिनके, वो पिया आए ना....। कौन पिया? कैसे पिया...? लड़की को पिया शब्द का ठीक ठाक अर्थ भी नहीं पता था। लेकिन अर्थ के अलावा बाकी का बहुत कुछ पता था। यदि किसी चीज़ के बारे में पूरी जानकारी हो तो इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपको उसकी परिभाषा या अर्थ पता है या नहीं। तो आशिकी 2 के दिनों की ही बात है। लड़की अपने झुण्ड में शामिल होकर धीरे धीरे स्कूल की तरफ बढ़ रही थी। उधर लड़का अपनी बहन को छोड़कर मोटर साइकिल मोड़ रहा था। ये रोज़ की घटना थी। कुछ नया नहीं था इसमें। रोज़ वो आता था। रोज़ लड़की भी इधर से जाती थी। कभी रास्ते में, कभी स्कूल के बाहर, उसे मोटर साइकिल पर। कभी बाज़ार की ओर जाते समय उसे दुकान पर बैठा देखती भी थी। लड़की के घर से निकल कर ज़रा दूर चलते ही लड़के की दुकान थी। तो लड़की तो उसे देखती ही थी। लेकिन, वैसे ही देखती थी जैसे दिन भर दूसरी चीज़ें देखती थी। सड़क, सहेलियाँ, मकान, कुत्ते, बकरियाँ, पेड़, सड़क, सहेलियाँ, मकान, कुत्ते, बकरियाँ, बिजली के खम्बे, माँ, पिता। नया ये था कि आशिक़ी 2 के गाने लड़की के सिर चढ़े हुए थे। या शायद उमर ही सिर चढ़ चुकी थी। गाने का तो बहाना होता है। हर उमर किसी न किसी गाने को ही दोष देती है। हर उमर के अपने गाने होते हैं। मगर हक़ीक़त ये है जब उमर आ जाती है तो ऐसा ही होता है। लड़की मन के अंदर धीरे धीरे गुनगुना रही थी - क्योंकि तुम ही हो, अब तुम ही हो, जिंदगी....अब तुम ही हो...चैन भी, मेरा दर्द भी, मेरी आशिक़ी अब तुम ही हो..... और उधर हरे लड़के ने अपनी मोटर साइकिल घुमाई। कामदेव नाम का पात्र और उसका बहुचर्चित पुष्प वाण तो सिंदूरी लड़की के धर्म में था हरे लड़के के धर्म में तो था नहीं... लेकिन... पात्र धर्म कब देखते हैं। गाना, मोटर साइकिल, नज़रें। खेल खत्म। फिर बचा ही क्या। लड़की ने पहली बार देखा कि अरे.... इस लड़के की आँखें तो उदास हैं। डूबी हुई। एक जोड़ी उदास आँखें इधर और एक जोड़ी मुस्कुराती आँखें उधर उतरीं तो उतरती चली गईं। गहरे और गहरे और गहरे। क्या ऐसा सचमुच होता है कि जिस को आप रोज़ देख रहे हों, उसे आप अचानक किसी दिन देखें और बस.....। और ये भी कि उस दूसरे को भी उसी दिन लगे कि.....। उफ़्फ़ ये तो बहुत ज़्यादा टाइमिंग और संयोग की बात ही हो सकती है।
बहुत दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। कुछ और होने की संभावना भी नहीं थी। मिलें तो जा के किस वीराने में...? और फिर ये भी तय हो कि मिलना है ही। दोनों को। लड़के को कहाँ पता था कि लड़की अब उसे अलग नज़रों से देख रही है। अलग मतलब, उस तरह से नहीं जिस तरह वो बिजली के खम्बे, पेड़ और कुत्ते को देखती है। इत्ती दूर से पता चलता है क्या कि नज़रें बदल गईं हैं। बस ये पता चलता है कि हाँ कुछ तो हुआ है। कुछ कुछ। वो भी ऐसे पता लगता है कि नज़रें अब जान बूझकर मिलती हैं, उलझती हैं और उलझी ही रहती हैं। दूर तक, देर तक। दोनो किनारों को पता रहता है कि कुछ अतिरिक्त देखा जा रहा है। और होता भी वही रहा। हरा रंग मोटर साइकिल को घुमाता और सिंदूरी रंग आँखों में झाँक लेता। चुप कर। छुप कर। झाँक लेता उस उदासी में जो आँखों में भरी थी। हरा रंग, उमड़ता हुआ मोटर साइकिल पर धुँआ छोड़ता निकल जाता। फिर वैसे ही उमड़ता हुआ शाम को आता बहन को वापस लेने और फिर वही....। लड़की हवा में फैले मोटर साइकिल के धुँए की पैट्रोल मिश्रित गंध को साँसों में भर लेती। खूब गहरी साँस खींच कर। चाहती कि ये गंध देर तक साँसों में रहे। उतर जाए गहरे कहीं। जहाँ से लोबान की तरह धीरे धीरे निकलती रहे। 
मुहब्बत अपने बहने के बहाने ढूँढ़ लेती है। इस बात का कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं है कि ऐसा ही हुआ होगा। लेकिन समझा जा सकता है कि ऐसा ही हुआ होगा। नहीं तो अच्छा ख़ासा होल्डर में लगा हुआ बल्ब होल्डर से निकल कर ज़मीन पर कैसे गिरा...? हुआ यूँ होगा कि माँ ज़रा इधर उधर हुईं, लड़की ने धीरे से रसोई का बल्ब निकाला और उसे गिरा दिया। शाम का समय। रात का खाना बनाने की तैयारी। रसोई में अँधेरा। छोटा भाई ट्यूशन पढ़ने गया। पिता भी घर पर नहीं। और लड़की के अनुसार ...य्य्ये म्मोटे से चूहे ने बल्ब पर कूद कर उसे गिरा दिया। माँ ने चिरौरी की, बेटी तू ही जाकर ले आ नया बल्ब। लड़की अनिच्छा दिखाती हुई, भुनभुनाती हुई, एहसान जताती हुई, बड़ी मुश्किल से बल्ब लाने को तैयार हुई। लड़की सँभल-सँभल कर पैर रख रही थी। उसने माँ को कई बार बात-बात में एक कहावत कहते सुना था कि जहाँ आग होती है वहीं धुँआ दिखता है। लड़की चाहती थी कि किसी को धुँआ होने का अंदाज़ा ही न हो। 
दुकान पर लड़का कानों पर मोबाइल का हैडफोन लगाए किसी ग्राहक का सामान पैक कर रहा था। लड़की चुपचाप जाकर खड़ी हो गई। लड़के ने ग्राहक का पैसा काटते समय काउण्टर के अंदर रखे मोबाइल में लगी हैड फोन की पिन को खींच कर निकाल दिया और धीरे से स्क्रीन पर नज़र आ रहे स्पीकर के आइकॉन पर उँगली से थपकी दी। गाना हैडफोन की जगह मोबाइल के स्पीकर में बजने लगा। -अपने करम की कर अदाएँ.....कर दे इधर भी तू  निगाहें.... सुन रहा है न तू.... रो रहा हूँ मैं....। लड़के ने मोबाइल की तरफ हैरत से यूँ देखा मानो हैडफोन की पिन ग़लती से निकल गई हो। कान से हैडफोन निकाला और मोबाइल के साथ उसे काउण्टर के एक तरफ पटक दिया। उसी तरफ जिस तरफ लड़की खड़ी थी। गाना अब भी बज रहा था। ग्राहक गया। लड़का और लड़की। गाना। पसीना। थरथराहट। पहले भी तो कई बार आ चुकी थी वो यहाँ। सामान लेने। फिर आज....? -वक़्त भी ठहरा है, कैसे क्यूँ ये हुआ, काश तू ऐसे आए, जैसे कोई दुआ। गाना अपने काम से लगा हुआ था। लड़की ने टूटा हुआ बल्ब काउण्टर पर रख दिया। लड़के ने उसे उलट पलट कर देखा और फिर मुड़कर रैक में से बल्ब निकालने लगा। लड़की भरपूर देख रही थी। गाना ख़त्म हो गया था और अब अगला गाना बज रहा था। उसी गाने का फीमेल संस्करण। -सुन रहा है न तू, रो रही हूँ मैं...। सुन रहा था। वो सब सुन रहा था। लड़का बल्ब निकाल कर लाया। काउण्टर के पास लगे होल्डर में लगा कर चैक किया। और उसी बल्ब की दूधिया रौशनी में लड़की की तरफ देखा। हर ग्राहक की तरफ देखता था। ये बताने कि देख लो बल्ब चालू है। लड़की ने देखा की लड़के की आँखें उससे कहीं ज़्यादा उदास हैं जितनी उसे दूर से दिखती थीं। बल्ब की हल्की दूधिया रौशनी उस उदासी को और गहरा कर रही है। उदासी का अपना आकर्षण है। उदासी हमेशा पास खींचती है। नदी को भी और स्त्री को भी। खींच लिया। -मंज़िलें रुसवा हैं, खोया है रास्ता, आए ले जाए, इतनी सी इल्तिजा। गाना, लड़का, लड़की, दुकान, बल्ब, हरा रंग, सिंदूरी रंग। गड्डमगड्ड, गड्डमगड्ड।
कुछ नहीं हुआ। बहुत कुछ हो गया। उस दिन के बाद लड़के की मोटर साइकिल कुछ अधिक तरंग में चलने लगी। स्कूल के बाहर कुछ धुँआ भी अधिक छोड़ने लगी। हिल-हिल, मिल-मिल, खिल-खिल, दिल-दिल। ग्रुप की सहेलियों को धुँआ दिखने लगा था। और आग भी। मगर सहेलियाँ थीं, समाज नहीं। चुप रहीं। टहोके में सहेली को छेड़ती रहीं -आ गई मोटर साइकिल...। लड़की के गालों में हर टहोके पर गुलाब खिल उठते। मोटर साइकिल हवा में उड़ती हुई आती दिखाई देती। और उस पर का सवार...? क्या ये सपना है? लड़की अब चाहती थी कि हवाओं को अपने सफेद दुपट्टे में बाँध ले। झझ्झरती हुई बरसात में बूँदों की आवाज़ में आवाज़ मिला कर हँसे। हँसती रहे, हँसती रहे। बादल के साँवले टुकड़े को हथेली में भर कर सूँघती रहे। सूँघती रहे, सूँघती रहे। क्योंकि ये साँवला टुकड़ा मोटर साइकिल के धुँए की तरह दिखाई देता है। शायद इसमें गंध भी वैसी ही हो। शायद लड़के की गंध भी ऐसी ही हो, पैट्रोल मिली धुँआली-धुँआली गंध। लड़की को ख़ुद भी पता नहीं था कि वो किसको सूँघना चाहती थी। बादल को, पैट्रोल को या लड़के को..। या शायद सबको। पृथ्वी की हर एक गंध को।
चूहे ने मौक़ा ताड़ कर फिर बल्ब गिरा दिया। बरसते पानी में गिरा दिया। छाता लिए अभिसारिका चल पड़ी। सड़क पर बह रहे बरसाती पानी से बचने का और आसमान से गिरते में भींगने का प्रयास करती। इस बार लड़का, पाकिस्तानी गायक सज्जाद अली को सुन रहा था। पाकिस्तानी गायक को सुन रहा था, ग़लत कर रहा था। यही तो इल्ज़ाम है हरे रंग पर। देशद्रोह। मगर सुन रहा था। दो दिन पहले ही सज्जाद अली के गाने इंटरनेट से डाउनलोड किए थे मोबाइल में। बिना हैडफोन के सुन रहा था। बरसते पानी में कौन आएगा कुछ लेने। पाँव फैलाए सोच रहा था। लड़की को। यदि फिल्म होती तो निर्देशक इस सीन में बिजली ज़रूर चमकाता। मगर हक़ीक़त में नहीं चमकी। बिजली की चमक के बग़ैर लड़की बिजली की दुकान पर थी। -अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें, जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें....। सज्जाद अली की आवाज़ बरसात की बूँदों में घुली मिली बरस रही थी। टूटा बल्ब, अच्छा बल्ब, होल्डर। करना तो वही था जो पहले किया था। इसके अलावा कुछ की गुंजाइश भी कहाँ थी। बल्ब लेकर लड़की पलटी तो बारिश मूसलाधार हो चुकी थी। हाथ को हाथ न सूझे। लड़की उलझन में भरी दुकान की तरफ पलटी। लड़का काउण्टर पर झुका बरसात देख रहा था। लड़की का खुला हुआ छाता सिर से पीठ पर आ गया। दुकान ओट में हो गई। छाते की ओट। सज्जाद अली ने उकसाया -तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फरिश्तों जैसा, दोनो इन्साँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें....? किसी को कुछ नहीं दिखा कि छतरी के उस पार क्या हुआ। हमें भी नहीं। बरसात को भी  नहीं। सज्जाद अली को भी नहीं। बस ये हुआ कि कुछ ही देर में लड़की उसी मूसलाधार बरसात में लौटी। उड़ती हुई, दौड़ती हुई, तैरती हुई।
मगर लड़के की बहन सचेत थी। उसे पता था सब कुछ। उसे डर था। वही डर जो उसके पिता को था। प्रेम द्वारा धर्म युद्ध। वो इशारों में लड़की को समझा रही थी कि ये ग़लत है। बहुत ख़तरनाक है। भाई को भी संकेत दे रही थी कि लड़की सिंदूरी रंग की है, बवाल हो जाएगा। आग से खेल है ये। लेकिन इश्क़ तो अपने आप में ही खेल है आग का। मस्तानों का खेल जिन्हें दुनिया से यारी क्या। बहन चाह रही थी ये सब कुछ अपने पिता को बताना। जानती थी कि ये आग उसी का घर जलाएगी। सब कुछ जला देगी। मगर पिता को बताने से पहले अपने स्तर पर प्रयास कर रही थी। उधर माँ को भी संकेत मिल गया था। संकेत कि कहीं कुछ तो हुआ है। ख़ैर, ख़ून, खाँसी, ख़ुशी, बैर, प्रीति, मदपान, रहिमन दाबे ना दबे जाने सकल जहान। लड़की ने रहीम के इस दोहे को कोर्स की बुक में पढ़ा था। इसकी संदर्भ सहित व्याख्या हिन्दी की परीक्षा में लिख कर भी आई थी। मगर भूल गई। कोर्स की चीज़ों को अगले साल भूला ही तो जाता है। इसमें ग़लती चूहे की भी थी जिसने एक महीने में तीसरी बार फिर से बल्ब फोड़ दिया। माँ, माँ थी। इधर बल्ब फूटा और उधर उसके अंदर की छठी बत्ती जल गई। चूहा दिखता तो नहीं है कोई। और बल्ब से से ही क्या दुश्मनी है उसकी? उसने उस रात मोमबत्ती जला कर काम चला लिया। माँ सब जानती है। क्योंकि वो भी कभी लड़की रह चुकी होती है। उसे पता था कि बल्ब कैसे और क्यों टूटते हैं। मगर उसे अभी पता नहीं था कि बल्ब किसके लिए टूट रहे हैं ?
लड़का, लड़की। दुनियादारी। गाढ़ा हरा रंग, गाढ़ा सिंदूरी रंग। माँ, बहन। जो क़िस्सा था वो अभी मुख़्तसर इतना ही था। मगर इतना ही रहना कब था। छटपटाहट, छटपटाहट। बहन कमज़ोर पड़ गई, भाई की उदास आँखों को और ज़्यादा उदास देखकर। सुनकर कि भाई मोबाइल पर क्या सुन रहा है ? सज्जाद अली की उदास आवाज़ उसके मोबाइल पर हर समय रहती है। -दिसंबर का समाँ, वो भीगी-भीगी सर्दियाँ, वो मौसम क्या हुआ, न जाने कहाँ खो गया, बस यादें बाक़ी.....। प्रेम द्वारा धर्म युद्ध के ख़तरे के बावजूद वो दोनों के मिलने का कारण बन गई। बनती रही। कभी इस बहाने तो कभी उस बहाने। आसन्न संकट का अंदाज़ा उसे था फिर भी। लड़की हँस रही थी। लड़की, लड़के के मोबाइल को छू रही थी। मोबाइल पर फेसबुक, वाट्स अप और वो, और वो... सब देख रही थी। लड़की कानों में हैडफोन लगाकर -हम तेरे बिन अब रह नहीं सकते, सुन रही थी। आत्मा में उतार रही थी। लड़की गाने गा भी रही थी। लड़की एक वर्जित लेकिन इच्छित दुनिया में प्रवेश कर रही थी। प्रतिबंधित लेकिन अभिप्सित काम कर रही थी। लड़की, लड़के से भी ज़्यादा इश्क़ में थी। अपने आप से इश्क़ करने में। लड़के के बहाने जी रही थी अपने आप को। लड़के के अंदर से होकर अपने सपनों की दुनिया में घुस रही थी। लड़की, लड़की हो रही थी, गाय से। खुरच कर उतार रही थी उस गाढ़े सिंदूरी रंग को जो उस पर चढ़ा था। जो उसे कुछ भी करने नहीं देता था।
और हो गया प्रेम द्वारा धर्म युद्ध। मोटर साइकिल की पिछली सीट पर बैठी लड़की देर तक धुँआ सूँघने के लिए दूर चली गई। बहुत दूर। उड़ गई। न जाने कहाँ जाकर दोनो रुके। न जाने कहाँ। भागते छिपते। दोनो। उस रात लड़के ने उदास गाने नहीं बजाए अपने मोबाइल पर। आशिक़ी 2 के लड़की के पसंदीदा उदास गाने भी नहीं। लड़के ने रामलीला उर्फ गोलियों की रासलीला का गाना बजाया। -अंग लगा दे रे...... मोहे रंग लगा दे रे...... मैं तो तेरी जोगनिया तू जोग लगा दे रे.......। लड़की ने लड़के की आँखों में देखा। आँखें अभी भी उदास थीं। उदासी। हरी उदासी। जो किसी दूसरे रंग को पीना चाहती थी और.....। रात। हर तरफ रात। हरा रंग ठिठक गया था देहरी पर। याद आ गया प्रेम द्वारा धर्म युद्ध। ठीक देहरी पर। ठीक देह की देहरी पर। -रात बंजर सी है काले खंजर सी है। जोग लगा दे रे प्रेम का रोग लगा दे रे। संगीत भी तो उकसाता है। लड़के ने मोबाइल के म्यूजिक प्लेयर पर रिपीट के बटन को उँगली से थपक दिया। यही गाना बजे। बार बार बजे। बजता रहे। -रास है रात में तेरी हर बात में.....। रास....। हरा रंग। उदास आँखें। स्त्री को पुरुष की उदासी और नदी को समंदर की उदासी खींच ले जाती है। बहा ले जाती है। लड़की ने....। उदासी टूटी। हरी आँखें मुस्कुराईं। फिर हँसीं। मोबाइल पर गाना बंद हुआ और रिपीट के कारण फिर बजने लगा। -अंग लगा दे रे....। अब उसे अनंत काल तक बजना था। हरा रंग झिमिर-झिमिर टूटा। बिखरा। किनारों से बह कर गहरा सिंदूरी रंग उसमें मिल गया। मिलता रहा। मिलता रहा। गाना भी उसी प्रकार  बजता रहा। बजता रहा। लड़की ने गहरी साँस भरी। हरे रंग के कोनों से सचमुच पैट्रोल की गंध आ रही थी। धुँआ भी उठ रहा था। लड़की ने पैट्रोल की गंध को अपने अंदर गहरे बहुत गहरे उतार दिया। हरा रंग अब ठिठकना नहीं चाहता था। कहीं भी नहीं। -उजली कोरी प्रीत पे आ सतरंग  लगा दे रे.....। हरा रंग अब एक मुकम्मल देह था। और गहरा सिंदूरी रंग भी। देह, गीत, रात, रंग, उजास। गाना रात भर बजता रहा। बंद हो-हो के फिर-फिर बजता रहा।
क़स्बे में सुगबुगाहट तो हो गई थी लेकिन जब पिता कहे तब तो गहरा सिंदूरी रंग एक्शन ले। प्रेम के द्वारा धर्म युद्ध के खिलाफ़ एक्शन। पिता नहीं चाहता था वो सब। अब तक क़स्बे में वही तो करवाता था ये सब। मोर्चा निकालना, हैंड बिल बाँटना। ये कार्य उसे ऊपर से दिया गया था। ऊपर से...? किधर ऊपर से...? राजनीति में सब ऊपर से ही दिया जाता है। प्रेम के द्वारा धर्म युद्ध को रोकने के लिए उसने बाक़ायदा एक दल गठित कर रखा था। जिसका काम ही था कि अपने रंग के लोगों जाकर समझाए। समझाए कि अपनी बेटियों को हरे रंग से बचाओ। बचा कर रखो। हरा रंग हर तरफ से आक्रमण कर रहा है। लड़की का पिता प्रेम के द्वारा धर्म युद्ध विरोधी मोर्चे का संयोजक भी था। और उसके ही घर...। उसका घर एक ख़ामोशी में डूबा हुआ था। जो नियमित आने जाने वाले थे वे आ-जा रहे थे। कहीं कोई ऊपरी हलचल नहीं थी। मगर अंदर....। लड़की का पिता सुबह जल्दी कहीं निकल के देर रात को लौट रहा था। देर रात। रात ढाई से तीन के लगभग। लड़के की दुकान एक दिन तो बंद रही मगर अगले दिन से खुल गई। लड़के का पिता दुकान पर बैठ रहा था। उसका घर भी सन्नाटे में था। बहन स्कूल नहीं जा रही थी। मोटर साइकिल जो चली गई थी। कहीं ओर। एक दहशत सी थी जो लड़के के पिता के चेहरे पर देखी जा सकती थी। जो दुकान में भी ख़ौफ़ पैदा करती हुई डोल रही थी। बल्ब, ट्यूबलाइटें, सीएफएल सब दहशत में थे। काँच के जो ठहरे। काँच दहशत पैदा भी करता है और ख़ुद भी दहशत में रहता है। काँच होना अपने आप में ही एक मुकम्मल दहशत है। अंदर भी, बाहर भी। लड़के के पिता का चेहरा भी हरे रंग के काँच से बना हुआ ही दिखाई दे रहा था।
गाना अगली रात भी वैसे ही बजा। कुछ और रातों तक बजता रहा। दो या तीन रातों तक और। वैसे ही बजता रहा। साथ में बजता रहा एक मृदंग भी। और एक बाँसुरी भी। और एक मोर पंख, जो मोर की ही तरह उस गाने पर नाच रहा था। मंद-तेज़, मंद-तेज़। दृश्य, गंध, स्वाद, ध्वनि और स्पर्श। पाँचों मिलकर रात भर रसायन रच रहे थे। हर रात। रात के बाद रात ही हो रही थी। सुबह नहीं, दोपहर नहीं, शाम नहीं। केवल रात। देह की दुनिया में केवल रात ही होती है। मगर फिर एक रात से पहले सुबह हो गई। होनी ही थी। सुबह। जिसमें लड़की का पिता आकर खड़ा हो गया। गहरा सिंदूरी पिता। जो लाल हो चुका था। पुलिस के पाँच छः जवानों को सादी वर्दी में लेकर। राज्य में उसीके रंग की तो सरकार थी। पिता ने बहुत गुपचुप किया सब। क़स्बे में भी और यहाँ भी। क़स्बे में तो ख़ैर किसी को पता भी नहीं था कि कुछ हो गया है। अफ़वाहें तो ख़ैर हर कहीं होती हैं। लड़का कोने में बैठा था। लड़की काँधे पर सिर टिकाए लड़के के मोबाइल से खेल रही थी। और दल आ पहुँचा। पुलिस बाहर रही। पिता, लड़की और लड़का अंदर। दरवाज़ा बंद। बंद रहा। बंद रहा। खुला। लड़की पिता के साथ निकली। सधे क़दमों से गाड़ी में जाकर बैठ गई। लड़का जो पिता को देखते ही दहशत में आ गया था अब हैरत में था। पिता ने लड़की को गाड़ी में बैठते देखा। मुड़ा। मुस्कुरा कर लड़के का कंधा थपथपाया। और गाड़ी में जा बैठा। अमूमन ऐसे मामलों में जो तमाशा होता है वैसा कुछ नहीं। सब कुछ सामान्य। लड़के को हैरत में डूबा छोड़ कर गाड़ी चली गई। धुँआ छोड़ते। मगर ये डीज़ल का धुँआ था। लड़की को तो पैट्रोल का धुँआ पसंद है।
और उसकी अगली सुबह क़स्बे की सामान्य सुबह थी। वैसे तो क़स्बे में सब सामान्य ही था लेकिन अब बाक़ी का भी सामान्य ही था। लड़का दुकान पर बैठा था। लड़की अपने घर में थी। बकरियाँ, गायें, कुत्ते सड़क पर। मतलब सब कुछ वैसा ही जैसा होता रहा था। लड़की का पिता अपनी बैठक में पहले की ही तरह आने जाने वालों से मिल रहा था। चर्चाएँ, मीटिंगें सब कुछ पूर्व की ही तरह। आवेदन देने वाले आ रहे थे। काम करवाने वाले भी। जैसे पहले भी आते थे। कुछ हुआ ही नहीं था। कुछ भी तो नहीं। लोग तो वैसे ही बातें करते हैं। अफ़वाहें उड़ाते हैं। कुछ होता तो क्या सब कुछ ऐसे सामान्य रहता। रह भी सकता था ? पिता ठहाके मार रहा था। बात बात पर। पहले नहीं मारता था। हँसने से तो उसका बैर था। हँसी तो एक अपराध था। फूहड़ता। गंभीरता को क्षतिग्रस्त करने के लिए किया गया सबसे बड़ा अपराध। हँसी ने इस दुनिया में सबसे अधिक नुकसान किया है ये उसे सिखाया गया था। गहरे सिंदूरी दल का जो नियंत्रण दल था उसके सदस्य कभी नहीं हँसते थे, मुस्कुराते भी नहीं थे। वे हँसी को ख़त्म कर देना चाहते थे। विशेषकर औरत की हँसी। मगर अब वो ख़ुद हँस रहा था। अपराध कर रहा था। सामान्य दिखने की कोशिश करना भी कभी कभी कैसे असामान्य बना देता है आपको। असामान्य या नाटकीय। इस सारे सामान्य में दो स्त्रियाँ सामान्य नहीं थीं। लड़के की माँ अभी भी दहशत में थी और लड़की की माँ भी। हालाँकि इन पर जल्द से जल्द सामान्य हो जाने का दबाव था। फिर भी।
दिन, सप्ताह। समय चीज़ों को डायल्यूट कर देता है। समय का कार्य ही है सांद्र को तनु करना। लड़का दुकान पर बैठता था। लड़की स्कूल नहीं जा रही थी। दिख भी नहीं रही थी। लड़के की बहन का स्कूल भी बंद हो गया था। लड़के का पिता अधिक हरा दिखने लगा था। गहरा हरा। और फिर एक दिन। एक दिन सिंदूरी रंग आँखें बंद कर मुस्कुराया और हरा रंग परेशान दिखाई दिया। उसकी ज़मीन पर क़ब्ज़ा हो गया था। क़ब्ज़ा उस आदमी के बेटे ने अपने चाचाओं, भाइयों के साथ मिल कर कर लिया था, जिससे लड़के के पिता ने ज़मीन ख़रीदी थी। जिससे ज़मीन ख़रीदी थी वो मर चुका था। उसके बेटे का कहना था कि आदिवासी की ज़मीन ख़रीदी नहीं जा सकती। ख़रीदने से पहले तहसील से अनुमति लेनी होती है। कलेक्टर से भी। और क्या पता बेची भी थी या नहीं। प्रापर्टी के रेट अब आसमान पर थे। इतने, कि तालाब के पास का वो टुकड़ा अब सोने का टुकड़ा था। चौबीस कैरेट सोने का टुकड़ा। गाँव उसीका था, लोग उसीके थे। क़ब्ज़ा करने में कोई समय नहीं लगा।  उसके पास लाठी थी, सो भैंस उसीकी थी। एक रात जब सुबह में बदली तो वो ज़मीन पर क़ाबिज़ था। हरा रंग हैरान था। आठ दस साल बाद...? अब...? अब ये आदिवासी वाला मामला सामने आ रहा है। और ये लड़का...? जो हाथ बाँधे खड़ा रहता था कि आपने बड़ा एहसान किया था मेरे पिता पर। कभी कोई बात ही नहीं हुई ऐसी। मगर क़ब्ज़ा तो हो चुका था। समझाइश, मध्यस्थता, बीच का रास्ता, चर्चाएँ, वो सब कुछ किया गया जो प्रारंभिक तौर पर किया जाता है। ताकी मामला सुलझ सके। पुलिस का कहना था कि मामला दीवानी का है तो इसे कचहरी के द्वारा ही सुलझाना होगा। कचहरी तय करेगी कि कौन सही है और कौन ग़लत। जिसके पक्ष में फैसला आ जाएगा पुलिस उसे ज़मीन का क़ब्ज़ा दिलवा देगी। मगर तब तक तो पुलिस के हाथ बँधे हुए हैं। तब तक..? केवल तब तक...?
लड़के के पिता को लगा कि अब बल का उत्तर बल से देना अनिवार्य है। क़ब्ज़ा वापस लिया जाए उसके बाद कोर्ट कचहरी की जाए। क्योंकि कम से कम यथास्थिति का तो लाभ मिलेगा। कोर्ट यही कहेगी ना कि जब तक फैसला नहीं होता यथास्थिति बना कर रखी जाए। आज की स्थिति में तो आदिवासी को लाभ मिल जाएगा। और फिर कोर्ट में पेशी दर पेशी, साल दर साल। एक पीढ़ी तो शायद इसी प्रकार निकल जाएगी। उधर गाँव में चर्चा थी कि हरा रंग गाँव पर आक्रमण कर सकता है। आदिवसियों का गाँव था। वहाँ कोई हरे रंग का नहीं था। वैसे तो आदिवासी किसी भी रंग के नहीं होते हैं। न सिंदूरी, न हरे ने किसी तीसरे रंग के। वे अपने ही रंग के होते हैं। मगर सिंदूरी रंग मानता था कि आदिवासी सिंदूरी ही होते हैं। और वो आदिवासियों को विश्वास भी दिला देता था। जब भी उसको ज़रूरत पड़ती थी। सो दिला दिया गया। ज़रूरत थी। दोनो की। हरे रंग के पिता ने अपने लोगों को एकत्र किया और पहुँच गया क़ब्ज़ा लेने। भाईभाइयों के बेटे और दोस्त। लड़का दुकान पर ही रहा। जीपों में सवार होकर पहुँच गए ज़मीन पर। ग़फ़लत। कुछ जीपें और पूरा गाँव। इधर ग़फ़लत थी, उधर तैयारी। हरा पिता भूल गया था कि दो तीन सप्ताह पहले ही उसका बेटा तीन चार दिन के लिए कहीं ग़ायब हो गया था। वो ग़ायब और क़ब्ज़े के बीच की कड़ियाँ जोड़ ही नहीं पाया। उसके लिए ये एक सामान्य घटना थी। बीच के तीन चार हफ़्तों में सब कुछ सामान्य हो चुका था ऐसा उसका मानना था। सब कुछ। हरा रंग और गाँव दोनो भिड़ गए। भिड़ गए आपस में। गाँव भारी पड़ा। बहुत भारी। कुछ मारे गए, कुछ भागने में क़ामयाब रहे। लड़के का पिता, और लड़के के तीनों चाचा और लड़के के दो चचेरे भाई। कुल छः घटनास्थल पर ही....। बाक़ी के घायल। कुछ गंभीर। एक चचेरे भाई ने अस्पताल में आकर दम तोड़ा। पुलिस, प्रशासन, पत्रकार, पोलीटिशियन। अब इन सबका काम शुरू हो चुका था। बाद में। इनका काम बाद में ही शुरू होता है। पहले तो जैसा कहा गया कि हाथ बँधे थे। तनाव था। गाँव में तो नहीं, पर क़स्बे में तो था ही। हरा रंग उत्तेजित था। लड़का न दुखी था और न उत्तेजित। वो कुछ भी नहीं महसूस कर पा रहा था। कुछ भी नहीं। लड़का उत्तेजित नहीं था इसलिए हरा रंग उत्तेजित होकर भी हो नहीं पाया। किसके लिए होता..? स्थिति तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में बनी रही। पुलिस और प्रशासन द्वारा जारी बयानों के अनुसार। नियंत्रण में बनी रही और नियंत्रण में कर भी ली गई।
अब तो ख़ैर उस घटना को दो साल हो गए हैं। इस बीच लड़की की शादी कर दी गई। पोंछ दिया गया स्लेट पर लिखी इबारत की तरह। पानी पोते से। मोबाइल, मोटर साइकिल, मोरपंख का सपना देखने वाली लड़की बुझा दी गई। फूँक मार के। बस ये सुना है कि किसी सिंदूरी रंग के शराबी की जाँघों के बीच पीसी जाती है। पिटती भी है ये सुन सुन कर कि उस क...वे में कौन से हीरे मोती जड़े थे ? लड़की को पता है कि कौन से हीरे मोती थे, पर बता नहीं सकती क्योंकि उन हीरे मोतियों का कोई नाम होता ही कब है? उन्हें तो महसूसा जाता है। उसकी देह पर मोरपंख की जगह ज़हरीले साँप नाचते हैं। डसते हैं। रात भर। एक भविष्य के शराबी को भी जन चुकी है। आदिवासी अब पूरी तरह ज़मीन पर क़ाबिज़ है। कुछ हिस्सा एक बार फिर से बेच चुका है। लड़का उस घटना के बाद ज़मीन को भूल ही चुका है। कभी नहीं गया उस तरफ़। लड़का बहुत कुछ भूल चुका है। बहुत कुछ। उसके मोबाइल में अब कोई गाने नहीं हैं। न सज्जाद अली, न रामलीला, न आशिक़ी 2। जाने क्या क्या सुनता रहता है अब वो। दिन भर दुकान पर बैठा रहता है। मोटर साइकिल अक्सर दिन दिन भर धूल खाती है। कहीं नहीं जाता। आप जब भी उधर से निकलोगे तो उसे दुकान पर ही बैठा देखोगे। अब उसके गले में काले सफेद चौखाने का गमछा परमानेंट डला रहता है और सिर पर गोल जालीदार टोपी भी। दाढ़ी बढ़ गई है। बढ़ी ही रहती है। माथे पर काला निशान हल्का हल्का दिखाई देने लगा है। उसकी आँखें अब उदास नहीं हैं। बिल्कुल भी नहीं। उसकी आँखें अब हरी हो गईं हैं। बिल्कुल हरी आँखें। हरी-कच्च आँखें। जिनसे देखने पर उसे सब कुछ लाल दिखाई देत है। गहरा, कत्थई झाँई वाला लाल.....।
(समाप्त)