सुबह अब होती है..... अब होती है..... अब होती है.... (कहानी पंकज सुबीर)

सुबह अब होती है..... अब होती है..... अब होती है....  (कहानी पंकज सुबीर)

(हंस पत्रिका के मार्च 2017 रहस्य अपराध वार्ता विशेषांक में प्रकाशित कहानी)
‘इसे रोज़नामचे में चढ़ाने से पहले आपने मुझसे एक बार पूछना भी ज़रूरी नहीं समझा?’ कुर्सी में फँसे-फँसाए बैठे एसडीओपी  अरविंद पाण्डेय ने कुछ उपहास के स्वर में पूछा समर यादव से।
एसडीओपी मतलब विकासखण्ड का अनुविभागीय पुलिस अधिकारी। पूरे विकास खण्ड के थानों का प्रधान। समर यादव उसी पोस्ट के लिए डायरेक्ट सेलेक्ट हुआ है, जिस पर अरविंद पाण्डेय प्रमोशन पाता हुआ पहुँचा है। फिलहाल प्रोबेशन पीरियड चल रहा है समर का। और उसी प्रोबेशन पीरियड के चलते उसे एक कुछ छोटे थाने का प्रभारी बनाया हुआ है।
‘सर मुझे लगा कि मामला सीधा सा है, किसी ने पत्र लिखा है कि पिछले महीने एक सामान्य मौत जो थाना क्षेत्र में हुई है, वह वास्तव में हत्या है। पत्र मिला है तो जाँच करनी होगी और जाँच करनी है, तो पत्र का रोजनामचे में सानहा तो डालना ही होगा।’ समर ने कुछ आदरपूर्वक उत्तर दिया।
‘अभी आपकी नौकरी की शुरुआत भी नहीं हुई है, इस प्रकार के पत्रों की आदत डालिए। हम पुलिस में हैं। रोज़ इस तरह के पत्र आते हैं, और आते रहेंगे। हर पत्र के पीछे लग जाएँगे, तो हो चुकी नौकरी। यहाँ हर कोई दूसरे से डाह लिए बैठा है, और इस प्रकार के पत्र पोस्ट कर रहा है पुलिस को। हमारी समझदारी इसी में है कि पत्र को फाड़ें और डस्टबिन की हवाले कर दें। हाँ अगर किसी का नाम लिखा हो कि फलाने ने हत्या की है, तो बात अलग है। फिर तो उसे थाने बुलाकर पूछताछ करना बनता है। क्यों बनता है, यह तो पता है या वह भी बताऊँ मैं आपको?’ अरिवंद पाण्डेय ने अभी भी उपहास के ही स्वर में उत्तर दिया।
‘लेकिन सर यह कैसे तय होगा कि कौन सा पत्र झूठा है और कौन सा नहीं ? थोड़ी बहुत जाँच तो करनी ही पड़ेगी न सर।’ समर ने अपनी तरफ से प्रतिरोध किया।
‘अभी जितने दिनों की तुम्हारी नौकरी भी नहीं हुई है, उतने दिनों की तो हम छुट्टियाँ ले चुके हैं। उड़ती चिड़िया के पैर गिन लेते हैं हम, समझे?’ अरविंद पाण्डेय ने वरिष्ठता का रौब झाड़ा।
‘पैर नहीं सर, पर गिने जाते हैं। पैर गिनने की कोई ज़रूरत नहीं, पैर तो सबको मालूम है कि चिड़िया के भी दो ही होते हैं।’ समर ने कुछ धीमे स्वर में कहा।
‘जो भी गिने जाते हों, हमें भाषा मत सिखाइये। अब हमारे इतने बुरे दिन आ गए हैं कि हमें आपसे भाषा सीखनी होगी, आपसे?’ अरविंद पाण्डेय की आवाज़ में गहरा व्यंग्य भाव था।
अरविंद पाण्डेय प्रमोटी ऑफिसर है, जबकि समर डायरेक्ट सेलेक्शन। प्रमोटी और डायरेक्ट सेलेक्टेड ऑफिसर्स के बीच एक प्रकार की टसल होती है। प्रमोटी ऑफिसर्स घाट-घाट का पानी पिए होते हैं और अपने अनुभवों की तलवार हमेशा हाथ में ताने रहते हैं। जुबान पर डायरेक्ट सेलेक्टेड के लिए हमेशा एक ही वाक्य ‘यह क्या जानेंगे कल के लौंडे।’ उधर डायरेक्ट सेलेक्टेड अधिकारी फ्रेश होते हैं, जवानी का जोश होता है, कुछ कर गुज़रने का जुनून होता है। जिस जगह पहुँचने में प्रमोटी ऑफिसर का आधा जीवन निकल गया, वहाँ ये कुछ ही साल में पहुँच जाएँगे।
‘लेकिन सर पत्र में साफ लिखा है कि मर्डर हुआ है। हमें कुछ तो करना ही होगा, हो सकता है कि सचमुच ही ऐसा कुछ निकल आए।’ समर ने एक बार फिर से अपनी बात रखी।
‘अरे भाई किसीका नाम लिखा है क्या पत्र में कि इसने हत्या की है? बस यह लिखा है कि हत्या हुई है, कहाँ ढूँढ़ोगे, किसे ढूँढ़ोगे? फिर भी तुम्हें लगता है कि कुछ निकल आएगा, तो ग़ालिब के खुश रखने का दिल का ये खयाल अच्छा है।’ अरविंद पाण्डेय ने और भी उपहास के स्वर में लगभग खिल्ली उड़ाते हुए कहा। समर ने ग़लत कहे गए ग़ालिब के शे’र को ठीक प्रकार से पढ़ कर बताना चाहा लेकिन रुक गया।
‘क्या लिखा है पत्र में ?’ अरविंद पाण्डेय ने ही आगे कहा ‘एक अठहत्तर साल का व्यक्ति जो अपनी उम्र पूरी कर, बीमारी के चलते मर गया, वह मरा नहीं है बल्कि उसे मारा गया है, हत्या की गई है, यही ना? और आप इसको गंभीरता के साथ ले भी रहे हैं, मतलब आप मान कर चल रहे हैं कि ऐसा हो सकता है। और बात महीने भर पुरानी हो चुकी है, अस्थियाँ तक गंगा में बहकर अब तक समुद्र में पहुँच चुकी होंगी। अब आप सारा काम छोड़ कर इस पत्र की जाँच करना चाहते हैं। वाह क्या बात है, आपकी समझदारी की तो दाद देनी होगी। प्रोबेशन पीरियड में ही आप जिस कमाल की सोच रख रहे हैं, उससे पुलिस का और आपका, दोनो का भविष्य उज्जवल दिखाई दे रहा है मुझे। पूत का पालना पाँव से ही हिल रहा है।’ कहते हुए अरविंद पाण्डेय ने ताली बजाई। समर के अंदर से क्रोध का लावा उठा लेकिन वह उस लावे को अंदर ही पी गया।
‘सर ट्रेनिंग में हमें सिखाया गया है कि किसी भी सूचना को बेकाम समझने की ग़लती नहीं करनी चाहिए। सूत्रों और सूचनाओं का ही खेल है पुलिस में सारा। और आप कह रहे हैं कि सूचना को फाड़ कर रद्दी के टोकरे में फेंक दो।’ समर ने क्रोध को भरसक काबू में रखते हुए अपनी आवाज़ को संयत ही रखा।
‘मैं कहाँ रोक रहा हूँ भाई ? आप तो जाइए और लग जाइए जाँच में। अब तो मुझे भी उत्सुकता है कि आप कब मेरे पास आते हैं यह कहते हुए कि खोदा बिल निकला चूहा।’ अरविंद पाण्डेय ने उपहास उड़ाया। एक बार फिर ग़लती को ठीक करना चाहा समर ने लेकिन वह चुप ही रहा।
‘अब तो आपने रोज़नामचे में पत्र को डाल दिया है, अब तो मैं स्वसं एसपी साहब को बताऊँगा कि आप इसकी जाँच कर रहे हैं। क्योंकि अगर मैं नहीं भी बताऊँगा, तो भी जनरल डायरी तो उनके पास भी जाती है, उन्हें तो पता लगना ही है। अब तो आपकी जाँच की उनको भी प्रतीक्षा रहेगी कि आप क्या निकाल कर लाते हैं इस मामले में।’ समर को चुप देख कर अरविंद पाण्डेय ने आवाज़ को ठंडा और गहरा करते हुए कहा। समर ने कोई उत्तर नहीं दिया।
‘आप स्वयं कह रहे हैं कि दोनो पति-पत्नी अकेले रहते थे। दो बेटियाँ हैं, जो शादी के बाद दूसरे शहरों में अपनी-अपनी ससुराल में रहती हैं। कभी-कभार आती जाती हैं। पति रिटायर्ड ऑफिसर था और अब अच्छी-ख़ासी पेंशन मिलती थी गुज़र के लिए। मकान एक पॉश कॉलोनी में बना है, जहाँ सिक्युरिटी की पूरी व्यवस्था है। और आप इस बात पर विश्वास कर रहे हैं कि पत्नी तक को पता नहीं चला कि उसके पति का खून हो गया है।’ अरविंद पाण्डेय ने समर को चुप देखकर तंज़ कसा।
‘सर, मुझे लगता है कि अगर पत्र आया है, तो कहीं न कहीं, कुछ न कुछ तो ज़रूर है। मैं आपको निकाल कर बताऊँगा।’ समर ने बहुत संक्षिप्त सा उत्तर दिया।
‘ठीक है, जाइए आप और करिए जाँच। अब आप निकाल कर ही बताइए मुझे कुछ न कुछ। मगर मामले की गंभीरता को समझ कर ही काम कीजिएगा। देने के लेने न पड़ जाएँ।’ अरविंद पाण्डेय ने कहा।
समर ने मन ही मन बुदबुदाया ‘लेने के देने’ और उठ गया। बाहर आकर उसने अपनी मोटर सायकल स्टार्ट की और तेज़ स्पीड में चला गया।
***
समर के पास एक पत्र पिछले सप्ताह आया था। इस पत्र में लिखा था कि उसके थाना अंतर्गत की एक पॉश कॉलोनी में पिछले माह जो एक अठहत्तर साल के बुज़ुर्ग व्यक्ति की मौत हुई है, वह सामान्य मौत न होकर हत्या है। इस प्रकार के पत्र पुलिस के पास आना एक सामान्य सी बात है। चोरी, डकैती, बलात्कार, हत्या, जाने किस-किस मामले में इस प्रकार के गुमनाम पत्र आते रहते हैं। आते हैं और अधिकांश को भुला भी दिया जाता है। समीर चूँकि अभी ट्रेनिंग पूरी करके आया है, इसलिए बहुत जोश है उसमें। और उस पर खोज का कीड़ा। यह जो खोज का कीड़ा होता है, यह सौ में से पाँच पुलिस वालों को हमेशा काटता रहता है। ये पाँच पुलिस वाले ही सारे केस सॉल्व करते हैं। समर उन पाँच में ही है। नौकरी भी नई-नई है इसलिए खोज का कीड़ा अभी काटता भी ज़्यादा है। ट्रेनिंग में सिखाया गया ध्येय वाक्य ‘घटना स्वयं बोलती है’ अभी ज़बान से और दिमाग़ से उतरा नहीं है। अभी तक की नौकरी में कुछ भी चेलेंजिंग नहीं किया है, बस वही रूटीन के अपराध और अपराधी। ऐसे में यह पत्र एक चेलेंज की तरह आया जिसे उसने एक्सेप्ट कर लिया।
पत्र मिलने के बाद दो-तीन दिन तो ऊहापोह में रहा था समर, क्या करे, क्या न करे। फिर आख़िरकार उसने पत्र का रोज़नामचा सानहा चढ़ा दिया। पिछले दिन का रोज़नामचा जब एसडीओपी के पास पहुँचा, तो उसने पत्र के बारे में पढ़ा। पढ़ते ही समर को अपने ऑफिस में तलब किया और उसके बाद वह सारी चर्चा हुई। एसडीओपी ने अप्रत्यक्ष रूप से उसे धमकी ही दे दी थी कि मामले की जाँच करो और इसमें से कुछ न कुछ निकाल कर लाओ, नहीं तो एसपी के सामने परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहो।
पत्र में कहीं कुछ नहीं लिखा गया था कि हत्या किसने की, कहाँ की, कैसे की। बस मरने वाले का नाम और पता लिखा था तथा यह लिखा था कि फलानी तारीख को इसकी मौत हुई है, जो असल में हत्या का मामला है। भेजने वाले का नाम-पता तो वैसे भी इस प्रकार के पत्रों में नहीं होता है। लेकिन इस पत्र में नाम तो क्या कोई हिंट भी नहीं। अक्सर तो ऐसा होता है कि जब भी इस प्रकार के पत्र आते हैं, तो उनमें किसी व्यक्ति विशेष का नाम लिखा होता है कि वह हत्या या वह अपराध फलाने व्यक्ति ने किया है। इस प्रकार के मामले अधिकतर दुर्भावनावश होते हैं। लेकिन कभी-कभी सही भी निकल जाते हैं। इस मामले में तो किसी का नाम नहीं लिया गया है और यही वह कारण है, जिसके चलते समीर ने इस पत्र में इतनी दिलचस्पी दिखाई।
पत्र मिलने के बाद समर उस वृद्ध के घर के आस-पास के कई चक्कर लगा चुका है। आस-पास की दुकानों पर, कॉलोनी के सिक्युरिटी वालों से, अपने तरीके से उसने पता करने की कोशिश की कि कहीं कुछ सुराग मिले। सिविल ड्रेस में जाकर उस घर पर भी नज़र रखी। लेकिन कहीं भी कुछ ऐसा नहीं दिखा, जो आपत्तिजनक हो। बूढ़ी स्त्री अकेली ही उस घर में नज़र आई। कभी-कभार बाज़ार जाती दिखी, या बाज़ार से सामान लेकर लौटती दिखी। कभी कोई दूसरा साथ में नहीं दिखा। दो-तीन दिन चक्कर लगाते हुए हो गए, तो समर ने पत्र को रोज़नामचे में चढ़ा दिया था कि कहीं उसके इस प्रकार पूछ-ताछ करने, आने-जाने पर कोई बात खड़ी हो, तो उसके पास बचाव के लिए कुछ तो हो। उसे मालूम है कि यदि उसने रोज़नामचे में नहीं चढ़ाया हो और कहीं कुछ विवाद हो जाए, तो यही अरविंद पाण्डेय डपटते हुए कहेंगे ‘आपने जाँच से पहले पत्र को रोजनामचे में चढ़ाना भी ज़रूरी नहीं समझा?’
***
समर ने जब दरवाज़े की घंटी बजाई, तो कुछ देर लगी दरवाज़ा खुलने में। आज समर सीधे उस घर तक ही पहुँच गया है। कुछ तो सुराग मिले। शायद घर जाने से ही कुछ संकेत मिले।
‘हाँ जी कहिए ?’ दरवाज़ा महिला ने खोला। समर ने पहली बार महिला को पास से देखा। दुबला-पतला इकहरा शरीर। ठिगना क़द। उम्र उतनी नहीं लग रही है महिला की, जितनी उसे पता है। पोनी टेल में बँधे हुए कलर किए हुए बाल, शरीर पर एक फूलों के छापों वाला गाउन, एक हाथ की कलाई में हाथी दाँत का कड़ा, दूसरी में एक पट्टेदार घड़ी, गले में छोटे-छोटे सफेद मोतियों की माला, पैरों में स्लीपर।
‘जी नमस्ते, मैं आपसे कुछ जानकारी लेने आया था। मैं समर यादव हूँ। इस इलाक़े के थाने का इन्चार्ज हूँ।’ समर ने अपना परिचय दिया।
‘जी कहिए क्या जानकारी चाहिए ?’ महिला का स्वर एकदम सधा हुआ है।
‘क्या हम बैठकर बात कर सकते हैं ?’ समर ने कुछ सभ्यतापूर्वक प्रश्न किया।
‘हाँ हाँ, क्यों नहीं, आइए अंदर आइए।’ कहते हुए महिला हल्का सा मुस्कुराते हुए दरवाज़े से अंदर हो गई। समीर अपने जूते उतारने लगा।
‘अरे पहने रहिए, मत उतारिए। चलते हैं यहाँ जूते।’ महिला ने अंदर से ही कहा। लेकिन समर तब तक अपने जूते उतार चुका था।
‘पुलिस के जूतों को घर में नहीं आने देना चाहिए आंटी।’ समर ने अंदर आते हुए मज़ाक किया, महिला उस मज़ाक पर हल्के से मुस्कुराई। समर अंदर आकर सोफे पर बैठ गया। छोटा सा ड्राइंग रूम जिसमें बीच में एक सेंटर टेबल, एक तरफ दीवान, एक तरफ सोफा और एक तरफ टीवी रखा है। टीवी जिस कैबिनेट में रखा है, उसमें छोटे-छोटे खानों में कई सारे शो पीस सजे हैं। बहुत पुराने टाइप के शो पीस। कुछ सीप-शंख से बनी हुई आकृतियाँ हैं, कुछ खजुराहों की मूर्तियों के सेट हैं। एक तरफ एक बैंड पार्टी सजी है। कुछ छोटे-छोटे जानवर भी एक खाने में रखे हैं कई सारे। समर को याद आया इस प्रकार के शो पीस बहुत पहले खूब आम थे। बचपन में उसके घर में भी उसने बहुत देखे हैं। यह जो छोटे-छोटे जानवर रखे हैं, यह किसी टूथपेस्ट के बॉक्स के अंदर से निकलते थे, उसे भी इनको कलेक्ट करने का बहुत शौक़ था। शायद घर पर अभी भी रखे हों कुछ। दीवारों पर फ्रेम की हुई काफी सारी तस्वीरें टँगी हैं। तस्वीरों में कुछ लड़कियाँ हैं, अलग-अलग उम्र में। एक पुरुष और यह सामने बैठी महिला भी अधिकांश में है। एक तरफ दो लड़कियों की दो बड़ी-बड़ी तस्वीरें लगी हैं, शादी की वेशभूषा में।
‘क्या लेंगे आप, चाय वगैरह कुछ ?’ महिला ने समर को इधर-उधर देखते पाया तो पूछा।
‘जी कुछ नहीं, बस पानी पिला दीजिए।’ समर ने उत्तर दिया। समर के कहते ही महिला उठकर अंदर चली गई। ड्राइंग रूम  का आधा हिस्सा डाइनिंग रूम बना हुआ था। और उसके उस तरफ किचन था, जहाँ महिला गई थी। समर अकेला बैठा अच्छी तरह से आस-पास का सब देखने लगा। इसीलिए तो उसने पानी माँगा है। समर ने देखा कि ड्राइंग रूम के एक कोने में एक लाल रंग के कपड़े की पोटली सी रखी है। जैसे बहुत कुछ बाँध कर रखा गया है उसमें। पोटली को टटोलने समर उठ ही रहा था कि इतने में महिला पानी लेकर आ गई। समर ने पानी का गिलास उठाया और पीने लगा। महिला फिर सामने बैठ गई।
‘आर यू श्योर कि कुछ चाय-काफी वगैरह नहीं लेना है ?’ समर को पानी का गिलास सेंटर टेबल पर रखते देखा तो महिला ने पूछा।
‘नहीं आंटी, कुछ नहीं थैंक्स।’ समर ने उत्तर दिया। महिला ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, वह बस समर के चेहरे की तरफ देखने लगी। इस अंदाज़ से कि क्यों आए हो यहाँ?
‘आंटी, हम लोग सीनियर सिटीज़न की सेफ़्टी के लिए एक स्पेशल प्रोग्राम चला रहे हैं। जिसमें अकेले रह रहे सीनियर सिटिज़न्स की लिस्टिंग करना और उनको सेफ़्टी के बारे में जानकारी देना शामिल है। आपको तो पता ही है पिछले दिनों सीनियर सिटिज़न्स के साथ क्राइम की बहुत सी घटनाएँ हुई हैं। स्पेशली हम ऐसे सीनियर सिटिज़न्स को डिटेक्ट कर रहे हैं, जो सिंगल रह रहे हैं, जैसे आप...।’ किसी बुज़ुर्ग के सामने झूठ कहना कितना मुश्किल होता है, इस बात का समर को एहसास हुआ।
‘हाँ वो तो है बेटा।’ महिला ने पहली बार उसे बेटा कहा ‘लेकिन सिंगल रहना कुछ ऐसा भी कठिन नहीं है, बल्कि आसान ही है। बस अपना ही ख़याल रखना है, और जब तक जीना है जी लो, नहीं तो.......।’ कुछ ठंडे स्वर में कहा महिला ने। समर को उस उत्तर का अटपटापन कुछ असहज कर गया।
‘आप इस फार्म को भर दीजिए प्लीज़....।’ कहते हुए समर ने एक फार्म महिला की ओर बढ़ाया। आज ही समर ने कम्प्यूटर पर ये फार्म बनाया था, फार्म में कुछ सामान्य सी जानकारियाँ थीं, लेकिन इसमें अपने काम की कुछ सूचनाओं के लिए भी स्पेस रखा था समर ने। महिला ने समर के हाथ से फार्म लिया और टेबल पर रखा पैन उठा कर उसे भरना शुरू कर दिया। समीर की निगाह एक बार फिर से कोने में रखी लाल पोटली पर गई। उसकी उत्सुकता बढ़ गई उस पोटली में।
महिला ने फार्म भरकर वापस समर की ओर बढ़ा दिया। समर ने फार्म लेते हुए कहा ‘थैंक्स आंटी.... ।’ फिर जैसे अचानक ही उस पोटली पर नज़र पड़ी हो उस अंदाज़ में बोला ‘ये इतनी बड़ी पोटली क्यों रखी है आंटी यहाँ, कुछ अंदर रखने का हो तो मैं रख दूँ उठाकर ?’
‘ये......?’ महिला ने पोटली की ओर देखते हुए कहा ‘अरे नहीं, ये तो यहीं रखना है.... अंदर कहीं इसके लिए जगह नहीं है।’ महिला ने कुछ सूनी आवाज़ में उत्तर दिया।
‘अच्छा... मुझे लगा कि शायद अंदर आप ले जा नहीं पा रहीं थीं, इसलिए इसे यहीं रख दिया होगा......। बहुत ऑड लग रही है ये आपके इतने वेल डेकोरेटेड ड्राइंग रूम में इस प्रकार रखी हुई..... क्या बँधा हुआ है इसमें ?’ समर ने हिम्मत जुटा कर आख़िर पूछ ही लिया।
‘इसमें...?’ महिला ने फीकी सी मुस्कुराहट के साथ कहा ‘इसमें भगवान बँधे पड़े हैं...।’
‘भगवान...?’ समर कुछ उलझन में पड़ गया।
‘हाँ भगवान.... मेरे पति को भगवान-भगवान खेलने का बड़ा शौक था। घर के हर कोने में, हर दीवार पर कोई न कोई भगवान की तस्वीर या मूर्ती लगी ही थी। मंदिर में तो ख़ैर थे ही ढेर से। उनके जाने के बाद मैंने सारे भगवानों को इस पोटली में बाँध कर इधर पटक दिया है।’ महिला की आवाज़ एकदम सपाट थी। समर ने आँखें उठाकर घर में चारों तरफ देखा, सचमुच घर में कहीं कोई भगवान का चित्र या मूर्ती नहीं नज़र आ रही थी।
‘ऐसा क्यों आंटी...?’ समर ने कुछ उलझन भरे स्वर में पूछा।
महिला ने कुछ देर तक कोई उत्तर नहीं दिया, चुपचाप उस पोटली की ही तरफ देखती रही। कुछ देर बाद समर की ओर देख कर बोली ‘तुम्हारी कोई बेटी है क्या....? शादी तो हो ही गई होगी तुम्हारी ?’
‘जी आंटी, एक बेटी है, तीन साल की...। यहाँ नहीं लाया हूँ फैमिली को, प्रोबेशन पर आया हूँ यहाँ अकेला।’ समर ने उलझन में डूबे हुए उत्तर दिया।
‘मेरी एक सलाह है बेटा।’ महिला ने दरवाज़े से बाहर शून्य में कहीं देखते हुए लगभग बुदबुदाते हुए कहा ‘अपनी बेटी को भगवानों से दूर रखना। इनकी छाँव से भी दूर रखना। दुनिया की हर औरत को भगवानों से दूर रहना चाहिए।’
‘क्यों आंटी...?’ कुछ आश्चर्य चकित होते हुए समर ने पूछा।
‘क्योंकि...’ कहते हुए महिला ने समर की आँखों में आँखें डाल दीं ‘क्योंकि दुनिया भर में औरत का जो शोषण हुआ है, वह इसी भगवान के नाम पर और इसी भगवान का डर दिखा कर हुआ है। धर्म, परंपरा, रस्म, रिवाज, ये सब भगवान का ही डर दिखा कर तो चल रहे हैं। और इन सबमें पिस रही है औरत, केवल औरत। क्योंकि धर्म भी पुरुष बनाता है, फिर उससे जुड़े रस्मो रिवाज़ भी पुरुष बनाता है, यहाँ तक कि धर्म का भगवान भी पुरुष ही बनाता है। हर धर्म में अवतार, पैग़म्बर, ईशदूत केवल पुरुष ही होते हैं, औरत नहीं। यदि औरत के मन में बचपन से भगवान का डर नहीं बिठाया जाए, तो वह तो होश सँभालते ही विद्रोह कर दे....। यह बहुत बड़ा षड्यंत्र है, बहुत बड़ा षड्यंत्र....। इसीलिए कह रही हूँ कि बचा कर रखना अपनी बेटी को भगवानों से, दुनिया की सारी बच्चियों को भगवानों से....।’
समर के पास कोई प्रश्न नहीं था, न कुछ और कहने को था। इसलिए वह कुछ भी नहीं बोला, चुपचाप महिला की ओर देखता रहा।
‘बहुत बुरा करते हैं हम, जो अपनी बेटियों को बचपन से ही पुरुष के बनाए इन भगवानों से डरना सिखा देते हैं। इस डर का ही फायदा उठाकर कोई न कोई पुरुष उनका जीवन भर शोषण करता है, हर प्रकार से।’ महिला का स्वर कुछ क्रोध से भर गया है। वह जलती नज़रों से उस पोटली की तरफ देख रही है। समर महिला के उत्तर से कुछ उलझन में पड़ गया था। काफी देर तक कमरे में मौन रहा। फिर समर ने ही चुप्पी तोड़ी ‘आप कहें तो इस पोटली को किसी मंदिर में दे दूँ...?’
‘नहीं.....’ महिला की आवाज़ और गहरी हो गई थी ‘पड़े रहने दो यहीं, इसको यहाँ इस प्रकार से पड़े देख कर सुख मिलता है....।’
‘सुख...?’ समर उलझन में पड़ा हुआ था।
‘हाँ सुख..... सम्मान के आसमान से कूड़ेदान में जाते हुए देखने का सुख। मंदिर में तो ये फिर से सम्मान के आसमान पर पहुँच जाएँगे।’ महिला ने कुछ कड़वाहट के साथ उत्तर दिया। समर को लगा कि महिला के पति की अभी कुछ दिनों पहले ही मृत्यु हुई है, जिसके चलते शायद वो नास्तिक हो गई है। होता है ऐसा। किसी अपने को खोकर अक्सर नास्तिक होने का भाव जागता है। कुछ दिनों तक बना रहता है यह नास्तिक भाव, लेकिन धीरे-धीरे यह कम होता है और व्यक्ति सामान्य होने लगता है। अपने को खोने के लिए वह भगवान को, ख़ुदा को दोषी मानता है और उसी क्रोध में यह भाव जन्म लेता है।
समर को लगा कि आज के लिए बहुत बातें हो गईं हैं। आज उसका उद्देश्य केवल प्राथमिक पड़ताल है, जो काफी हो गई है। बाकी अगले बार में कर लेगा वह। वह उठ कर खड़ा हो गया। ‘अच्छा आंटी चलता हूँ.... एक-दो दिन में आऊँगा, कुछ फार्मेलिटीज़ और करनी हैं।’
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अपने थाने में बैठा समर महिला के बारे में ही सोच रहा था। महिला ने उसे बड़ी उलझन में डाल दिया है। सोच रहा था कि वहाँ से कुछ न कुछ सुराग मिलेगा, लेकिन वहाँ से तो उलझन लेकर लौटा है। महिला की बातें उसके दिमाग़ में रह-रह कर गूँज रही हैं। अभी पुलिस में आए हुए उसे बहुत लम्बा समय नहीं हुआ है, लेकिन इस प्रकार का केस और इस प्रकार का केरेक्टर उसके सामने पहली बार आया है। सीधी-सादी सी बुज़ुर्ग महिला की बातें कितनी अजीब और रहस्यमयी थीं। समर एक-एक बात को याद कर रहा है। उस महिला ने कोई भी उत्तर सीधा नहीं दिया था। हर बात में कोई न कोई रहस्य-सा छिपा था मानों।
महिला द्वारा भरा गया फार्म उठाकर उसने देखा, बहुत ही सुंदर अक्षरों में पूरा फार्म भरा था। फार्म उसने हिन्दी में तैयार किया था लेकिन महिला ने सारे उत्तर अंग्रेज़ी में दिए थे। महिला ने अपनी दोनो बेटियों के पूरे पते और मोबाइल नंबर भी बताई गई जगह पर लिख दिए थे। एक बेटी दिल्ली और दूसरी बैंगलोर में रहती है। जिन पॉश कॉलोनियों के पते फार्म में लिखे हैं, उनको देखकर तो नहीं लगता कि महिला की बेटियों में से किसी का इन्वाल्वमेंट हो सकता है। इन दो के अलावा नज़दीकी रिश्तेदारों में किसी का नाम नहीं लिखा था महिला ने। लेकिन महिला के पति के तो भाईबंद होंगे ही न ? उनका कोई ज़िक्र क्यों नहीं किया है महिला ने ? नज़दीकी रिश्तेदार के नाम पर बस दो बेटियाँ।
कुछ सोचते हुए उसने एक बार फिर से वह पत्र निकाल लिया और उसे देखने लगा, कहीं कुछ और सुराग मिले। पत्र बहुत ही ख़राब राइटिंग में लिखा गया था। साफ़ ज़ाहिर है कि या तो दूसरे हाथ से लिखा गया है, या राइटिंग को बिगाड़ कर लिखा गया है। लिफाफे पर पता भी उसी प्रकार लिखा गया है। इस प्रकार के पत्रों में यही किया जाता है। या तो सीधे-सीधे कम्प्यूटर पर कम्पोज़ करके भेजे जाते हैं, या इस प्रकार की राइटिंग में। भेजने वाला पूरी सावधानी बरतता है इन पत्रों में। पत्र में कहीं कोई सुराग नहीं है, बस लिखा है कि इस तारीख़ को आपके थाना क्षेत्र में इस व्यक्ति की मौत हुई है, जो इस पते पर रहता था, वह मौत सामान्य न होकर हत्या है। बस इतना ही, और कुछ भी नहीं। दोनो सील इसी शहर के पोस्ट ऑफिस की हैं, मतलब यहीं, इसी शहर से डाला गया है पत्र को। इसके अलावा कहीं कुछ नहीं, कुछ भी नहीं। कहाँ से शुरू किया जाए ? किस पाइंट से इस केस को खोला जाए ?  समर गहरी सोच में डूबा हुआ था।
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‘नमस्ते आंटी...’ समर ने मोटर साइकिल से उतरते हुए देखा कि महिला गेट पर ही खड़ी है, तो उतरते ही अभिवादन कर लिया। आज समर अकेला नहीं आया है। बात को आगे बढ़ाने के लिए कुछ न कुछ सिरा तो उसे चाहिए ही। आज वह सीसी टीवी और दूसरे सिक्युरिटी सिस्टम लगाने वाली कंपनी के सैल्समेन को अपने साथ लाया है। इस बहाने कुछ ज़्यादा देर तक बात हो सकती है महिला से। और फिर घर में अंदर घुसने, पूरा घर देखने का कोई न कोई बहाना भी तो चाहिए न उसे।
‘नमस्ते बेटा...... आओ....’ कुछ मुस्कुरा कर कहते हुए महिला गेट से अंदर की ओर बढ़ गई। पीछे-पीछे वह दोनो भी घर की ओर बढ़ गए।
‘आज तो चाय का समय भी हो रहा है और मैंने भी नहीं पी है, तो आज पहले चाय, उसके बाद बातें।’ महिला ने लगभग आदेश के स्वर में कहा और उन दोनो को बैठने का इशारा करके अंदर चली गई।
समर ने देखा कि उस दिन के बाद आज कहीं-कहीं कुछ-कुछ बदला सा महसूस हो रहा है। कैबिनेट में रखे हुए शोपीस की जगहें एक दूसरे के साथ बदली हुई हैं। सेंटर टेबल पर उस दिन पत्रिकाएँ, रिमोट और ड्राय फ्रूट का एक बॉक्स रखा था, आज उसकी जगह मोबाइल फोन, एक डायरी और नमकीन मठरियों का ट्रांस्परेंट डब्बा रखा है। समर को यह भी महसूस हुआ कि दीवार पर नीचे जो तस्वीरें टँगी हैं, उनके स्थानों में भी कुछ परिवर्तन हुआ है। कुछ इधर की उधर हुई हैं। दीवान पर उस दिन कुशन अलग तरीके से रखे थे, आज कुछ अलग प्रकार से रखे हुए हैं। हाँ एक चीज़ बिल्कुल नहीं बदली है, वह लाल पोटली आज भी ठीक उसी स्थान पर रखी थी, जहाँ पिछली बार रखी हुई थी। समर गहरी नज़रों से जल्दी-जल्दी सब कुछ देख रहा था। कुछ ही देर में महिला ने अपने हाथों में एक ट्रे लिए प्रवेश किया।
‘आंटी ये सीसी टीवी लगाने वाली कंपनी के सैल्समेन हैं। हमने कुछ स्पांसर ढूँढ़े हैं, जो आपके समान अकेले रह रहे बुज़ुर्गों के घर में सीसी टीवी लगाने के ख़र्च को स्पांसर कर रहे हैं।’ चाय पीते-पीते समर ने सैल्समेन की ओर इशारा करते हुए कहा। यह भी एक झूठ ही था। कौन करेगा स्पांसर भला इस काम के लिए ? 
‘सीसी टीवी से क्या होगा बेटा?’ महिला ने कुकीज़ की प्लेट समर की ओर बढ़ाते हुए कहा।
‘आजकल तो बहुत ज़रूरी है आंटी, और फिर आप अकेली रहती हैं, भगवान न करे कोई घटना-दुर्घटना हो जाए, तो कम से कम पता तो चल जाएगा कि क्या हुआ?’ समर ने एक कुकी उठाते हुए समझाइश के स्वर में कहा।
‘भगवान न करे.....? हर अच्छा-बुरा क्या वही करता है ?’ महिला ने कुछ उपहास के स्वर में कहा, समर ने कुछ नहीं उत्तर दिया, चुपचाप कुकी को कुतरता रहा। ‘ऐसा कहो न कि तुम अपनी सुविधा के लिए लगवा रहे हो यह।’ समर को चुप देखकर महिला ने हल्का सा मुस्कुराते हुए कहा।
‘अपनी सुविधा...? मैं कुछ समझा नहीं आंटी।’ समर ने उलझन भरे स्वर में कहा।
‘तुम्हारी ही तो सुविधा के लिए है। देखो मैं तो अकेली रहती हूँ, रात-बिरात, दिन-दहाड़े कोई आए, मार जाए, तो मेरा तो खेल ख़त्म हुआ। जो सीसी टीवी कैमरे ने रिकार्ड किया, वो मेरे किस काम का मरने के बाद ? हाँ तुम्हारी तो सुविधा का है वो रिकार्ड, तुम्हारी भाग-दौड़ कम हो जाएगी। सब कुछ रिकार्डेड मिल जाएगा। अपराधी को पकड़ने भर की देर रहेगी बस।’ महिला ने उसी प्रकार बहुत दबी हुई मुस्कुराहट के साथ उत्तर दिया।
‘अरे ! ऐसा क्यों सोच रही हैं आप, अच्छा सोचिए, बी पॉज़िटिव।’ समर ने चाय का कप टेबल पर रखते हुए कहा।
‘बेटा पाज़िटिव और निगेटिव सोच नहीं होती, समय होता है। जो आज तुम्हारे लिए पॉज़िटिव है, वो मेरे लिए हो सकता है निगेटिव हो। मैं अपने हिसाब से पॉज़िटिव ही सोच रही हूँ।’ महिला ने ठंडे स्वर में कहा।
‘फिर भी अगर आप स्वीकृति दें, तो ये एक बार घर को देख कर एस्टीमेट वगैरह बना लें। बाद में अगर आप नहीं लगवाना चाहें तो मत लगवाइयेगा। अभी कम से कम एस्टीमेट तो बन जाए।’ समर ने महिला को चाय खत्म कर टेबल पर कप रखते हुए देखा, तो कहा।
‘वैसे मुझे तो नहीं लगता कि इसकी कोई ज़रूरत है, लेकिन तुमको अपनी फार्मेलिटीज़ करनी हो, तो कर लो। सरकारी नौकरियों में दस तरह के झंझट, टारगेट होते हैं, मुझे पता है। सारा जीवन तो सरकारी अधिकारी की नौकरी करने में बिताया है।’ महिला के स्वर में एक बार फिर कड़वाहट घुल गई।
‘थैंक्स आंटी।’ कहते हुए समर उठ कर खड़ा हो गया।
सैल्समेन के साथ समर ने पूरे घर का मुआयना किया। महिला ने पूरे घर का चक्कर लगवाया। पूरे घर में समर को कहीं भी भगवान की कोई तस्वीर या मूर्ती दिखाई नहीं दी, ड्राइंग रूम की ही तरह। ड्राइंग रूम से लगा हुआ महिला का बेडरूम और उसके ठीक सामने सीढ़ियाँ। सीढ़ियाँ चढ़ते ही सामने एक मंदिर जैसा कमरा था, जो पूरी तरह सूना पड़ा था। कमरे में मंदिर जैसा आकार बना था, जो खाली था। समर ने उस कमरे के अंदर जाकर देखा, एकदम भाँय-भाँय कर रहा था कमरा। उसके ठीक पास एक और बेडरूम था और सामने टैरेस। सैल्समेन इंचटेप से कुछ नाप वगैरह लेता जा रहा था। समर अपने हिसाब से कुछ भी संदिग्ध की तलाश में लगा था। मगर कहीं कुछ नहीं था। ऊपर के बेडरूम में एक डेस्कटॉप कम्प्यूटर रखा था। समर ने पास जाकर देखा तो उस पर धूल जम रही थी, जैसे कई दिनों से उसे हाथ भी नहीं लगाया गया हो।
‘अब इसे भी भगवानों की तरह पड़े-पड़े धूल ही खाना है, कोई नहीं जो इसे देखे।’ महिला ने समर को कम्प्यूटर के पास खड़े देखा तो कहा।
‘आप नहीं चलातीं इसको ?’ समर ने पूछा।
‘नहीं...’ महिला का स्वर एकदम दृढ़ था ‘बिल्कुल नहीं....।’
‘तो सीख लीजिए... इतना मुश्किल भी नहीं है ऑपरेट करना.... टाइम पास हो जाया करेगा आपका....।’ समर ने समझाइश भरे स्वर में कहा।
‘ज़िंदा इंसानों को छोड़ कर मुर्दा मशीन के साथ टाइम पास किया जाए, ये कहाँ की ज़िंदगी हुई भला?’ महिला का स्वर कुछ कटु हो गया, समर उस कड़वाहट को भाँप कर चुप हो गया।
‘तुम उस दिन कह रहे थे न भगवानों की पोटली को किसी मंदिर में देने को, वह तो छोड़ो, लेकिन इसका कुछ कर दो। इस कम्प्यूटर का। कोई ज़रूरतमंद गरीब स्टूडेंट हो, तो उसको दिलवा दो। लड़की हो, तो और भी अच्छा। यहाँ तो पड़ा-पड़ा धूल ही खा रहा है, कम से कम किसी के काम तो आएगा।’ महिला ने समर से कहा।
‘जी आंटी मैं पता करता हूँ। हैं बहुत ज़रूरतमंद।’ कहते हुए समर कुछ मुस्कुराया ‘आंटी किसी ज़रूरतमंद को भगवान की पोटली के लिए भी ढूँढ़ लूँ ?’
‘नहीं.... उनकी ज़रूरत किसीको नहीं है। हाँ उनका डर ज़रूर सबको है। और डर ही उस ज़बरदस्ती की ज़रूरत को पैदा कर रहा है। पड़े रहने दो उनको पोटली में ही बँधे-बँधाए, पोटली से बाहर निकलेंगे, तो और न जाने कितनों को......’ कहते-कहते महिला रुक गई। समर ने भी कुछ नहीं कहा।
सैल्समेन के साथ पूरे घर को अच्छी तरह से देख लिया समर ने। एक टिपिकल मध्यमवर्गीय घर जैसा होता है, वैसा ही घर। वैसा ही सामान। पुराना और बरसों से उपयोग आ रहा सामान। पलंग, अलमारी, टीवी, फ्रिज, कूलर, टेबल, कुर्सी। और हाँ एक कवर से ढँकी हुई वह कार भी, जो घर के बाहर पोर्च में खड़ी है। हर घर ऐसा ही तो होता है। कोई क्यों मार डालेगा ऐसे घर में रह रहे एक अठहत्तर साल के बूढ़े को ?
***
समीर थाने में बैठा दिमाग़ के घोड़े दौड़ा रहा था। जर, जोरू और ज़मीन, हत्या के पीछे केवल तीन ही कारण होते हैं, ऐसा कहा जाता है, लेकिन इस मामले में तो इन तीनों में से कोई भी नहीं। पैसा जो है, जितना है, वह मरने वाले की पत्नी का है और पत्नी के बाद दोनों बेटियों का। अठहत्तर साल की उम्र में प्रेम प्रसंग या इस तरह का कोई प्रकरण....? इम्पॉसिबल। और ज़मीन के नाम पर वही एक मकान, जो किसी विवाद में नहीं। कहीं वह पत्र सचमुच ही तो झूठा नहीं ? जैसे ही यह विचार समर के दिमाग़ में आया, वैसे ही उसकी आँखों के सामने एसडीओपी पाण्डेय घूम गया। अगर यह पत्र झूठा निकल गया, तो पाण्डेय उसे कच्चा ही चबा जाएगा। पता नहीं क्या करेगा वह ? पाण्डेय का ख़याल आते ही समर एक बार फिर सँभल के बैठ गया और नए सिरे से पूरे केस के बारे में सोचने लगा।
इसी बीच समर ने उस महिला की दोनो बेटियों के बारे में भी अपने स्तर पर पता करवा लिया था। वह दोनो सचमुच ही वेल सेटल्ड थीं। बल्कि उच्चवर्गीय परिवारों में सेटल्ड थीं। महिला के ससुराल पक्ष के लोग कुछ इसी शहर में और कुछ आस-पास के शहरों में रहते हैं। लेकिन वह सब भी अपनी-अपनी जिंदगी जी रहे हैं। महिला का मायका दूसरे प्रदेश के किसी छोटे क़स्बे में है, जहाँ अब क़रीबी रिश्तेदारों में कोई ख़ास नहीं बचा है। भाई रहे नहीं, भाइयों के बच्चे वगैरह हैं, जो इधर-उधर नौकरियाँ कर रहे हैं। मतलब यह कि मायका अब है नहीं महिला का, और ससुराल भी नाम की ही है। ले-देकर बेटियाँ ही हैं दोनो। ससुराल पक्ष के एक-दो लोगों को यूँ ही टटोलने के लिए समर ने बातचीत की, तो पता यह चला कि यह लोग भी वहाँ जाना बंद कर चुके हैं। शादी-ब्याह, मौत-मय्यत पर सामाजिक पंरपरा को निभाने जाते हैं बस। यह बड़ा अजीब लगा समर को। आख़िर को इतनी भी दूर की रिश्तेदारी नहीं है, सगे भाई के बच्चे हैं। ठीक है समय के साथ सब कुछ तेज़ी के साथ बदल रहा है, लेकिन चाचा-ताऊ तो अभी दूर की रिश्तेदारी में शामिल नहीं हुए हैं। एक ही शहर में रहते हुए जाना-आना न हो, ऐसा भला कैसे हो सकता है?
जायदाद को लेकर कहीं कोई झगड़ा नहीं है। बल्कि जायदाद ही नहीं है, तो झगड़ा किस बात का ? मरने वाला और उसके भाई, सब सरकारी नौकरियों में रहे, और जिसका जहाँ मन रमा, उसने वहीं रिटायरमेंट के बाद अपना डेरा जमा लिया। दादा-परदादा ने कोई ऐसी ज़मीन-जायदाद नहीं छोड़ी थी, जिस पर पुश्तों से झगड़ा चल रहा हो, विवाद चल रहा हो। जो कुछ भी संपत्ति थी, वह इन भाइयों की अपनी ही अर्जित की हुई थी। असल में केवल बेटियाँ होना, कोई बेटा न होना, यह स्थिति जायदाद के झगड़े की ओर ही इंगित करती है सबसे पहले। मरने वाले के भाई के बेटों से जब समर की बात हुई, तो उनकी बातचीत में एक प्रकार की लापरवाही थी, मानों उन्हें कोई परवाह नहीं है किसी बात की।
कुछ सूचनाएँ उसे यह मिली थीं कि मरने वाला इस उम्र में भी ख़ुद ही ड्राइव करता था। सूरज डूबने से पहले घर लौट आता था। पत्नी अक्सर या कहें तो अधिकांश रूप से साथ में होती थी उसके। अकेला ड्राइव करके कभी-कभार ही कहीं जाता था। गर्मियों में दोनो बेटियाँ अपने बच्चों के साथ हर साल इनके पास आती थीं और महीने डेढ़ महीने इनके पास रुक कर जाती थीं। ठंड के समय में दीपावली के बाद दोनो पति-पत्नी बेटियों के घर जाते थे। महीना भर इसके घर और फिर महीना भर दूसरी के घर। उस दौरान घर बंद रहता था। जनवरी में ही लौटते थे दोनो। घर में लगभग हर काम के लिए किसी न किसी को रखा हुआ था। खाने वाली बाई, कपड़े धोने वाली बाई, साफ-सफाई करने वाली बाई। बाज़ार से सामान लाने का काम दोनो में से कोई भी कर लेता था। यह सारी सूचनाएँ तो समर के पास थीं, लेकिन इन सूचनाओं में ऐसा कुछ भी नहीं था, जो उसे किसी निर्णायक बिन्दु तक पहुँचा दे।
समर ने मरने वाले के डॉक्टर से भी बातों-बातों में बहुत कुछ जानकारी निकलवा ली थी। मरने वाले की दो बार एंजियोप्लास्टी और एक बार ओपन हार्ट सर्जरी हो चुकी थी। हाई ब्लड प्रेशर, डायबिटीज़, थायराइड आदि की भी समस्या थी। इन सब बीमारियों के कारण पिछले कुछ दिनो से उसकी किडनी पर भी प्रभाव आया था, जिसके कारण हायपरग्लाइसीमिया के साथ साथ सीवियर हाइपोग्लाइसीमिया भी होने लगा था। मतलब शुगर का लेवल बढ़ने के बजाय कभी-कभी एकदम से घट भी जाने लगा था, ख़तरनाक लेवल तक। कुल मिलाकर यह, कि जितनी बीमारियाँ इस उम्र में सामान्य रूप से हो सकती हैं, वह सब मरने वाले को थीं। डॉक्टर के अनुसार इन्हीं बीमारियों के चलते उसकी रात में, सोते में ही मृत्यु हो गई थी। डेथ सर्टिफिकेट में मरने का कारण हार्ट अटैक लिखा गया था, और डॉक्टर का कहना था कि वैसा ही हुआ भी था। कुल मिलाकर डॉक्टरी भाषा में देखा जाए तो यह एक बिल्कुल ही सामान्य मौत थी।
बहुत सी जानकारियाँ उसके पास आ गईं, लेकिन कोई भी जानकारी हाथ पकड़ कर पत्र की दिशा में नहीं ले जा रही थी। सारी की सारी जानकारियाँ एकदम सामान्य सी जानकारियाँ थीं। पत्र कह रहा था कि हत्या हुई है और जानकारियाँ कह रही थीं कि नहीं ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, सब कुछ सामान्य तरीके से ही हुआ है। एक अठहत्तर साल का आदमी अपनी भरी-पूरी ज़िंदगी जी कर बीमारियों के चलते सामान्य मौत मर गया है। ट्रेनिंग में उसे सिखाया गया था कि हर हत्या का कोई न कोई कारण हत्यारे के पास होता है। कारण तलाशो, हत्यारा खुद ब खुद मिल जाएगा। लेकिन यहाँ तो कहीं भी, कोई भी कारण किसी की तरफ इशारा नहीं कर रहा है। किसी के पास भी इस हत्या को करने की कोई भी वजह नहीं दिखाई दे रही है, किसी के पास भी नहीं। क्या करे वह ? हार मान ले अरविंद पाण्डेय के पास जाकर?
***
समर, महिला के घर की तरफ जा रहा था कि रास्ते में ही बरसात शुरू हो गई। हालाँकि हल्की बूँदा-बाँदी ही शुरू हुई थी, लेकिन आसमान के बादलों को देखकर लग रहा था कि बरसात तेज़ होगी। शाम भी गहरा रही थी और उस पर बरसात, समर वापस लौटने की सोच ही रहा था कि उसने महिला को देखा। एक हाथ में सामान का थैला पकड़े कुछ तेज़ क़दमों से अपने घर की ओर जाते। समर ने मोटर साइकिल महिला के पास ले जाकर रोक दी।
‘आइये आंटी आपको घर छोड़ दूँ....।’ समर ने कहा। महिला ने कोई आनाकानी नहीं की। घर तक पहुँचते-पहुँचते बरसात कुछ तेज़ हो गई। इतनी कि दोनो भीग गए। अच्छे-ख़ासे। सावन का महीना चल रहा है, बादलों को कोई भरोसा नहीं होता इस महीने में।
घर के अंदर पहुँच कर महिला ने कहा ‘अरे... तुम तो पूरा भीग गए हो, रुको मैं तुम्हारे लिए कुछ चेंज करने को लाती हूँ।’
‘नहीं आंटी रहने दीजिए... मैं ठीक हूँ...।’ समर ने रोकने की कोशिश की।
‘क्या ठीक हो..? अभी बरसात रुकने के कोई आसार नहीं हैं। तेज़ होती जा रही है, अभी तो तुम जाने से रहे। रुको मैं पहले खुद चेंज कर लूँ, फिर तुम्हारे लिए भी निकालती हूँ कुछ कपड़े।’ कहते हुए महिला तेज़ी के साथ अंदर चली गई। समर ऊहापोह में पड़ा वहीं खड़ा रहा। उसने देखा आज फिर पूरे ड्राइंग रूम में फेर बदल किया गया है। आज तो कुछ ज़्यादा ही बदलाव दिख रहा है। कैबिनेट में जो छोटे-छोटे जानवर रखे थे, वो आज सारे सेंटर टेबल के एक कोने में करीने से जमे हुए हैं। एक तरफ एक ताज़े फूलों का गुलदस्ता भी रखा है। सेंटर टेबल किसी वॉल पेपर की तरह नज़र आ रही है।
‘लो बेटा ऊपर के रूम में जाकर चेंज कर आओ। और इस बैग में अपनी वर्दी रख लेना।’ महिला की आवाज़ पर समर चौंका। देखा तो महिला चेंज कर के आ चुकी थी। हाथ में एक बिल्कुल नया लोअर-टी शर्ट और एक प्लास्टिक बैग था, जिसे समर की ओर बढ़ा रखा था। समर ने कुछ उलझन में उन्हें अपने हाथ में लिया और उलट-पुलट कर देखने लगा।
‘नए हैं, बेटी लाई थी अपने पिता के लिए.... लेकिन उन्होंने पहने ही नहीं कभी।’ महिला का स्वर ठंडा था ‘चलो चेंज कर आओ, मैं तब तक कॉफी बनाती हूँ स्ट्राँग।’
समर ने कपड़े लिए और सीढ़ियों से ऊपर के कमरे में चला गया। कपड़े बदलने से पहले उसने ऊपर के कमरे की अच्छे से तलाशी भी ले ली, उतनी देर में जितनी हो सकती थी। वार्डरोब में कुछ भी ऐसा नहीं था, जो उसके काम का हो सकता था। कम्प्यूटर के की बोर्ड, माउस, प्रिंटर के ख़ाली बॉक्स, कुछ टूल्स जिनमें हथौड़ा, स्क्रू ड्रायवर, पाने, ड्रिल मशीन और भी जाने क्या-क्या था। समर ने जल्दी-जल्दी सब चीज़ों पर सरसरी निगाह मार ली। कुछ निराश होते हुए उसने वार्डरोब को बंद किया। गीली वर्दी उतारी, तो देखा अंडरवियर भी पूरा गीला हो चुका है। इसी पर लोअर पहना, तो ये उसे भी गीला कर देगा। इधर-उधर देख कर कुछ देर सोचने के बाद उसने अंडरवियर को भी उतार दिया। कमरे में अब वह अलफ़ नग्न खड़ा था। कमरे में लगे पंखे को उसने फुल स्पीड पर चला दिया और गीले जिस्म को थपक-थपक कर सुखाने लगा। जिम में तराशा हुआ शरीर, जिसके कटाव अभी भी वैसे ही हैं, समर ने वार्डरोब के शीशे में अपने शरीर को देखा। सीढ़ियाँ इस प्रकार की हैं कि यदि उन पर चढ़कर कोई ऊपर आएगा, तो आने की आहट मिल ही जाएगी, यही सोच कर उसने अंडरवियर भी उतार दिया था। कुछ ख़याल आते ही उसने वर्दी की पैंट उठाई और उसकी जेब में रखे काग़ज निकाले और अपना पर्स भी। काग़ज़ भीग नहीं पाए थे, पर्स में थोड़ा बहुत पानी चला गया था। समर ने उनको हिफ़ाज़त के साथ लोअर की जेब में रख दिया। उसके बाद अपनी वर्दी को तह करके प्लास्टिक बैग में रखने लगा। पंखे की हवा में सूखते शरीर में ठंड के कारण फुरफुरी आ रही थी।
‘कॉफी के बदले मैंने अदरक वाली चाय बना दी है।’ महिला ने समर को चेंज करके सीढ़ियों से उतर कर आते देखा तो बोली। समर ने अपने हाथ में पकड़े प्लास्टिक बैग को वहीं पास में स्टूल पर रखा और सोफे पर आकर बैठ गया।
‘हूँ.... तुम्हें तो ये कपड़े बिल्कुल फिट आए हैं, अब इनको वापस मत करना, तुम ही रख लेना।’ महिला ने कुछ नरमाई के साथ कहा।
‘अरे नहीं आंटी.... ऐसा थोड़े ही होता है... मैं धुलवा कर प्रेस करवा के वापस कर दूँगा..’ समर ने सेंटर टेबल पर रखी नमकीन की प्लेट में से एक चम्मच नमकीन उठाते हुए कहा।
‘रख लेना बेटा... बेटी बहुत प्यार से लाई थी.. तुम पहन लोगे, तो मुझे अच्छा लगेगा कि किसी ने तो पहना.. बिल्कुल नया है, जैसा का तैसा रखा था।’ महिला की आवाज़ में उदासी घुल गई थी।
‘वो तो मुझे पता है आंटी, टैग तो मैंने ही तोड़े हैं इनके। ठीक है रख लेता हूँ, वैसे भी मेरे फेवरेट ब्रांड और फेवरेट कलर हैं ये...।’ समर ने महिला को उदास महसूस किया तो एकदम बोला।
‘थैंक्स बेटा....’ महिला ने मुस्कुराकर कहा। ‘लो चाय लो, गरम-गरम पी लो, बरसात की ठंडक दूर हो जाएगी।’ महिला ने चाय की ओर इशारा करते हुए कहा। समर ने कप उठाया और चाय पीने लगा। चाय पीने के दौरान दोनो चुप हो गए। महिला एक नान खटाई को कुतरते हुए उसके साथ चाय के घूँट भर रही थी। बाहर बरसात बहुत तेज़ हो चुकी थी। मूसलाधार, घनघोर बरसात। महिला चाय पीते हुए दरवाज़े के बाहर हो रही बरसात पर नज़र टिकाए हुए थी।
‘तुम अपने आपको बदलो समर.....।’ महिला ने पहली बार समर को नाम लेकर पुकारा और जो कुछ कहा, उससे भी समर चौंक गया।
‘जी...? मैं कुछ समझा नहीं आंटी....?’ समर कुछ आश्चर्यचकित होते हुए बोला।
‘यह जो तुम अपनी ड्यूटी के प्रति पसेसिव रहते हुए, हर काम को व्यवस्थित तरह से करने के आदी हो, इस आदत को थोड़ा बदलो। यह आदत आगे चलकर परेशानी बन जाएगी तुम्हारे लिए।’ महिला ने समर की ओर देखे बिना कहा। नज़र अभी भी बाहर की बरसात पर ही टिकी है।
‘आंटी मुझे सरकार से तनख़्वाह मिलती है काम करने की, काम तो करना ही पड़ेगा, काम तो करना ही चाहिए...।’ समर ने एक ही बात को दो तरीके से कहा।
‘हाँ... वो तो ठीक है, लेकिन इसकी ख़ब्त न पड़ जाए तुम्हें, इस बात का ध्यान रखना। कभी-कभी व्यवस्थित काम करना, नियम से काम करना, तरीके और सलीक़े से काम करना, यह सब भी एक प्रकार के सायकोलॉजिकल डिसऑर्डर बन जाते हैं। और हमें पता ही नहीं चलता कि हम इनके चलते दूसरों को कितना परेशान कर रहे हैं।’ महिला की आवाज़ बरसात के तेज़ पार्श्व संगीत में गूँजती हुई-सी समर तक पहुँची। समर कुछ उलझन में पड़ा चुपचाप चाय पीता रहा। महिला भी इतना कह कर सूनी आँखों से बाहर हो रही बरसात को देखती रही।
‘मेरे पति जब रिटायर हुए, तो चीफ़ इंजीनियर हो चुके थे। अपने विभाग के हेड। परले दर्जे के ईमानदार थे.... परला दर्जा मैं जानबूझ कर यूज़ कर रही हूँ। प्रोडक्शन में थे और लोग कहते हैं कि अपने काम में जीनियस थे। सिस्टमेटिक काम करने के शौकीन। इस शौक का ख़ामियाज़ा सब भुगतते थे, वहाँ ऑफिस में अंडर में काम करने वाले कर्मचारी भी और यहाँ घर में हम सब भी।’ कह कर महिला एक बार फिर से कुछ देर को चुप हो गई।
‘एक छोटे क़स्बे से शादी होकर मैं आई थी। जहाँ उस समय लड़कियों को इतने पहरे में रखा जाता था कि बस साँस लेने के अलावा और कुछ करने की न तो इजाज़त होती थी और न स्पेस। लेकिन सपने तो लड़कियों की आँखों में हर युग में बसते रहे हैं। ये अलग बात है कि पूरे किसी भी युग में नहीं हुए। एमए किया था मैंने समाज शास्त्र से, हालाँकि करना तो सायकोलाजी में चाहती थी, लेकिन मेरे कॉलेज में था ही नहीं यह विषय और दूसरे शहर जाकर पढ़ने का तो सोचा भी नहीं जा सकता था।’ महिला ने बात को आगे बढ़ाया।
‘बोर तो नहीं हो रहे हो तुम? मैंने सोचा कि बरसात तेज़ हो रही है, जाना तो अभी हो नहीं पाएगा तुम्हारा, चलो अपनी कहानी ही सुना दूँ।’ महिला ने कुछ मुस्कुराकर समर की ओर देखते हुए कहा।
‘अरे नहीं आंटी, मुझे तो बहुत इंट्रेस्टिंग लग रही है आपकी कहानी।’ समर ने भी मुस्कुराते हुए उत्तर दिया। बाहर तेज़ बिजली चमकी, उसके कौंध में महिला का चेहरा भी चमक उठा।
‘शादी के बाद यहाँ आई तो सोचा कि चलो अब कम से कम अपने तरह से जीने को मिलेगा। यहाँ पर मायके जैसी बंदिशें तो नहीं थीं, लेकिन यहाँ कुछ और था।’ महिला का स्वर और गहरा हो गया। ‘यहाँ एक ईमानदार, तेज़ मेमोरी वाले, जीनियस, व्यवस्थित काम के शौकीन, सनकी और गुस्सैल से पाला पड़ा था। बहुत ज़्यादा गुण भी कभी-कभी मिलकर एक बड़ा अवगुण बन जाते हैं।’ कहते हुए महिला फिर चुप हो गई। बरसात का शोर महिला के चुप होते ही कमरे में घुस आया। लग रहा है कि आज ही पूरे सीज़न का पानी बरस जाएगा। ‘एक के बाद एक तीन बेटियाँ हुईं, एक तो बच भी नहीं पाई। बेटियाँ पैदा होने को लेकर ससुराल पक्ष ने ताने दिए, बुरा कहा, लेकिन मुझे डिफेंड करने वाला कोई नहीं था। बल्कि कई बार तो मुझे लगा कि इनकी भी मौन सहमति थी उस सबमें।’ महिला के स्वर में दर्द था।
‘जो तुमसे कहा न मैंने कि आदत को थोड़ा बदलो, उसका कारण भी बताती हूँ।’ महिला ने कुछ देर चुप रहने के बाद फिर बोलना शुरू किया ‘जीवन नियमों से नहीं चलता बेटा, बहुत व्यवस्थित हो जाना भी एक प्रकार की अव्यवस्था होती है....... अव्यवस्था दूसरों के लिए। इस अव्यवस्था को मैंने भी भोगा है और मेरी बेटियों ने भी। हमने ज़िंदगी किसी कर्फ़्यू के साए में गुज़ारी है।’ कह कर महिला एक बार फिर चुप हो गई। समर कुछ कहना चाह रहा था लेकिन समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहे ? महिला की कहानी में उसे अपने दखल की कहीं कोई गुंजाइश नहीं दिखाई दे रही थी।
‘हमारा घर हमेशा सहमा रहता था। पूरा समय यही देखते रहने में बीतता था कि जो चीज़ जहाँ होनी चाहिए, वो वहाँ है या नहीं? और एक परेशानी यह थी कि हमें हर घटना, हर बात को याद भी रखना होता था। क्योंकि उन्हें डायरी लिखने की आदत थी। डायरी का मतलब यह कि हर मिनट का हिसाब उस में एकदम करेक्ट लिखा जाए। कोई आया तो कितने बजकर कितने मिनट पर आया और फिर कितने बजकर कितने मिनट पर गया। हम कहीं गए तो भी यही जानकारी। यह जानकारी मुझे और बच्चों को याद रखनी होती थी, रात को डायरी लिखते समय किसी से भी पूछी जा सकती थी। यहाँ तक कि यह भी कि सब्ज़ी वाले से भिंडी ख़रीदी, तो कितनी ख़रीदी और किस भाव में ख़रीदी।’ महिला लम्बी बात कह कर साँस लेने के लिए रुकी।
‘इंट्रेस्टिंग..... इस प्रकार भी कोई डायरी लिखता है, यह मैंने नहीं सुना आज तक।’ समर ने महिला को चुप होते देखा तो बात का सिरा पकड़ कर बोला।
‘लिखना भी नहीं चाहिए.... क्या होगा उन डायरियों का भला ? कौन पढ़ेगा उनको आपके बाद ? किसको फुरसत है इतनी ? रद्दी में बिककर रीसायकल हो जाएँगी सारी डायरियाँ किसी दिन। लेकिन उनको लिखने में आपने जो समय बेकार कर दिया, जिसे आप जी सकते थे, वह कभी रीसायकल नहीं हो सकता। वह तो चला गया आपके जीवन से।’ महिला ने सपाट स्वर में कहा। बिजली की तेज़ कौंध के बाद तेज़ आवाज़ में बादल गड़गड़ाए हैं बाहर।
‘वो डायरियाँ कहाँ हैं अब ?’ समीर ने प्रश्न किया।
‘कहा तो मैंने कि रीसायकल हो चुकी होंगी अब तक तो। बेच दी मैंने सारी रद्दी वाले को।’ महिला का स्वर और ज़्यादा सपाट और शुष्क हो गया था। ‘चाहती तो थी कि जला दूँ, लेकिन फिर सोचा कि जो चीज़ रीसायकल हो सकती है, उसे क्यों नष्ट किया जाए। हो सकता है रीसायकल होने के बाद ही किसी अच्छे काम में आ जाए।’ इतना कह कर महिला कुछ देर को चुप हो गई। घड़ी की सुइयाँ रात की ओर इशारा करते हुए तेज़ी से बढ़ रही थीं।
‘मैं भी चाहती थी कि घर में अपने हिसाब से कुछ करूँ। कुछ नया डेकोरेशन करूँ । कुछ चेंज करूँ। लेकिन उसकी इजाज़त ही कहाँ थी। जो जैसा है, उसे वैसा ही रहना है।’ महिला ने फिर से कहना शुरू किया ‘रिटायरमेंट तक आते-आते दोनो बेटियों की शादी हो गई और वो अपने-अपने घर चली गईं। और रह गई अकेली मैं। अब सब कुछ मुझे अकेले ही सहन करना था। दूसरी बेटी की शादी के दो महीने बाद ही वो रिटायर भी हो गए और हम सरकारी मकान छोड़कर यहाँ आ गए, इस मकान में। इन्होंने रिटायरमेंट से दो साल पहले ही यह बुक करवा लिया था।’ महिला ने मकान की दीवारों की ओर देखते हुए कहा।
‘अब तो यहाँ आए हुए भी पन्द्रह साल हो गए। पन्द्रह साल........।’ महिला ने पन्द्रह साल इस प्रकार कहा मानों युगों की बात कर रही हो। ‘यह पन्द्रह साल कैसे काटे हैं मैंने, मैं ही जानती हूँ। पहले तो बेटियाँ थीं घर में और कर्मचारी ऑफ़िस में, अब तो मैं अकेली ही थी।’
‘यहाँ आने के बाद मानों मैं नरक में आ गई थी। सब्ज़ी वाले से झगड़ा करते कि उसने कड़कड़ाता नोट होने के बाद भी मरियल-सा नोट क्यों दिया। ट्रेन में झगड़ा, किराने वाले से झगड़ा, सोसायटी में झगड़ा, टेलीफ़ोन कंपनी वाले से, केबल वाले से, कुल मिलाकर यह कि जैसा वह चाहें, वैसी पूरी दुनिया करे। जहाँ झगड़ा न कर सको वहाँ कम्प्लेंट, मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक सबको कम्प्लेंट। असल में घर में मैंने और बेटियों ने और ऑफ़िस में अंडर के कर्मचारियों ने हाँ में हाँ मिला-मिलाकर आदत बिगाड़ दी थी उनकी। सनक अब ख़ब्त बन चुकी थी।’ महिला ने ठंडे स्वर में कहा। ‘रिश्तेदारों ने भी आना-जाना धीरे-धीरे कम कर दिया। पहले मायके से भाई-भतीजे आ भी जाते थे, लेकिन सबको अपनी इज़्ज़त प्यारी होती है। कौन आएगा गालियाँ सुनने। ससुराल पक्ष से भी देवरों के बच्चे आते थे पहले, लेकिन उनको भी डाँटना-डपटना। और किन बातों पर ? परिवार के वाट्सअप ग्रुप का नाम, ग्रुप का आइकॉन अगर किसी बच्चे ने बदल दिया, तो उसकी ख़ैर नहीं। सबसे छोटे देवर की बेटी को इसी बात पर कि उसने ग्रुप के किसी सदस्य के जन्मदिन पर ग्रुप का नाम बदल दिया था, इतनी भली-बुरी बातें सुनाईं कि वह तो वह, उसके माँ-बाप ने भी आना बंद कर दिया। धीरे-धीरे मैं ही अकेली होती गई।’ कह कर महिला कुछ देर को चुप हो गई।
‘घर की हालत यह कि अगर एक सुई भी कहीं रखी है, तो उसे वहीं रहना चाहिए। न ज़रा सा इधर, न ज़रा सा उधर। यहाँ तक कि सेंटर टेबल पर भी तय था कि क्या-क्या और कहाँ-कहाँ रखा रहेगा। कौन-सा रिमोट सेंटर टेबल के किस कोने में कहाँ रखा रहेगा, यह तक। कैबिनेट में रखे हुए शो पीस पिछले पन्द्रह सालों में टस से मस तक नहीं हुए। दीवारों पर टँगी हुई तस्वीरें तक इधर से उधर नहीं हो सकती थीं। दीपावली की सफाई से पहले बाक़ायदा एक लिस्ट बनती थी, कैमरे से तस्वीर ली जाती थी कि कौन सी चीज़ कहाँ रखी थी। कुछ भी बदल नहीं रहा था। इस घर में सब कुछ फ्ऱीज़ हो गया था, जो जहाँ है वो वहीं रहेगा, वो चाहे चीज़ें हों या इन्सान।’ महिला की आवाज़ में बहुत सूनापन था।
‘रिटायरमेंट के बाद भगवान-भगवान खेलने की भी ख़ब्त चढ़ गई थी। पूरे घर में कहीं या तो मूर्ती लगी थी या तस्वीर। परिवार के वाट्सअप ग्रुप्स में भी दिन भर भगवानों की तस्वीरें पोस्ट करते रहते। मुझे लगता है कि भगवानों से डरने लगे थे वो। कहीं कोई श्रद्धा या भक्ति या आध्यात्म जैसा कुछ नहीं था, बस डर था। और अभी दो साल पहले जब देश की सरकार बदली, तो इतने ही भक्त नई सरकार के, नए प्रधानमंत्री के भी हो गए। बल्कि भगवानों से भी ज़्यादा इस नई सरकार के हो गए। वाट्सअप, फेसबुक पर पूरा दिन झगड़े खड़े करते। और उस आभासी दुनिया का ग़ुस्सा मुझ पर निकलता। बेटियों के बच्चे मुझे फोन करके कहते कि नानू से कहो इतनी कम्युनल बातें पब्लिक प्लेटफार्म पर न करें, मुसीबत में फँस सकते हैं। लेकिन.......।’ महिला ने मानों गहरे अवसाद में जाकर बात को बीच में ही छोड़ दिया। कमरे में बरसात का शोर सर उठाने लगा, समर ने देखा महिला ने अपनी आँखें बंद कर ली हैं और सिर पीछे टिका दिया है।
‘तुम खिचड़ी खाते हो ? नमकीन खिचड़ी, बढ़िया आलू, गोभी डली हुई। रुको, मैं चढ़ा कर आती हूँ कुकर। मेरा भी खाने का समय हो रहा है और तुम भी कहाँ खाओगे इतनी रात को जाकर। आज मेरे हाथ की खिचड़ी खाओ, खाने वाले कहते हैं कि मैं खिचड़ी बहुत स्वादिष्ट बनाती हूँ।’ महिला ने अचानक उठते हुए कहा।
‘अरे नहीं आंटी...’ समर ने रोकने की कोशिश की लेकिन महिला ने हाथ के इशारे से रोक दिया। और अंदर चली गई। समर अपनी जगह ही हैरान सा बैठा था अब तक की कहानी सुनकर। क्या है यह सब ? किस दिशा में जा रही है यह कहानी ? कोई व्यक्ति ऐसा भी हो सकता है ? उसने मुड़कर बाहर की ओर देखा, बरसात की रफ़्तार कुछ कम तो हुई है, लेकिन ज़ोर अभी भी है। अंदर किचन से खटर-पटर की आवाज़ें आ रही हैं।
‘खिचड़ी चढ़ा आई हूँ, बस तीन सीटी में फटाफट तैयार हो जाएगी।’ महिला हाथ में एक बाउल लिए लौटी है। बाउल को समीर के सामने रख कर वह अपनी जगह पर बैठ गई। बाउल में मठरियाँ और नान खटाई हैं। समर ने एक मठरी उठाई और खाने लगा। भूख तो लग रही है।
‘हमें यह पता ही नहीं चलता है कि हम अपने साथ जी रहे लोगों को किस प्रकार और कितना इरीटेट कर रहे हैं। हम तो बस अपनी व्यवस्था के आनंद में डूबे होते हैं। हमें पता ही नहीं चलता कि कब हम किसी डिक्टेटर में ट्रांस्फार्म कर जाते हैं।’ महिला ने बात का सिरा पकड़ कर कहना शुरू किया ‘सनक पहले ख़ब्त में बदलती है और फिर एक प्रकार के वहशी जुनून में बदल जाती है। मैंने बताया था तुमको कि रिश्तेदारों ने तो आना बंद ही कर दिया था, बेटियाँ आती थीं गर्मियों में, तो अब उनके भी बंद होने के आसार थे। बेटियों के बच्चे बड़े हो गए थे, और आजकल के बच्चे थे। उनको क्या पड़ी थी सुनने की और वह भी किस बात पर ? बड़ी बेटी की बेटी को इस बात पर बुरी तरह से डाँटा कि वह टूथपेस्ट के ट्यूब को बीच में से दबा कर पेस्ट क्यों निकाल रही है? एकदम पीछे से दबाया जाता है ट्यूब को। आस-पड़ोस के लोग तक आ गए थे, चिल्लाना सुनकर। वो लड़की सारा दिन रोई और उसकी माँ भी। अगले साल वो नहीं आई अपनी माँ के साथ।’ महिला की आवाज़ भर्रा गई। समर ने पहली बार महिला को इमोशनल होते देखा इतने दिनों में। वह उठकर महिला को दिलासा देना चाहता था, लेकिन कुछ सोच कर बैठा रहा। इतने में ही कुकर की सीटी बजने की आवाज़ आई, महिला आवाज़ सुनकर अंदर चली गई और कुछ देर में वापस आकर बैठ गई।
‘रिश्तेदार आना छोड़ चुके थे, बेटियाँ आती थीं, तो वो भी कब तक आतीं गालियाँ सुनने, खुद भी और अपने बच्चों को भी सुनाने? मुझे लगा कि मैं धीरे-धीरे अकेली होती जा रही हूँ, इस ख़तरनाक टापू पर एक आदमख़ोर के साथ।’ महिला ने कुछ सँभलकर कहना शुरू किया। ‘कई बार सोचती थी कि काश बेटियों की शादी होते ही मुझे किसी से प्रेम करके उसके साथ चले जाना चाहिए था। लोग थोड़े दिन बुरा-भला कहते और फिर चुप हो जाते। ये पन्द्रह साल तो जी लिए होते मैंने। हमें वही करना चाहिए जो हमारा मन कहे, क्योंकि उसमें ही हमारा सुख होता है। लोगों और भगवानों के डर से निर्णय नहीं बदलने चाहिए। मेरे कई सारे निर्णयों को इस लाल पोटली में बंद चीज़ों ने प्रभावित किया। कुछ करना चाहती थी, तो बचपन से दिमाग़ में बिठाया गया इन चीज़ों का डर मुझे रोक देता था।’ महिला ने लाल पोटली की ओर इशारा करते हुए बात पूरी की। और उसके बाद एक बार फिर चुप हो गई। बहुत देर के लिए चुप। समीर एक नान खटाई उठाकर खाने लगा। कुकर दूसरी सीटी दे रहा था। आवाज़ सुनकर महिला उठकर अंदर चली गई। समर एक बार फिर रहस्य के कुहासे में डूब गया।
‘सिगरेट पीते हो, तो टीवी के कैबिनेट की ऊपर वाली दराज में रखी है, निकाल लो।’ कुछ देर बाद अंदर से महिला का स्वर आया। महिला के सामने सिगरेट पीना तो नहीं चाहता था समर, लेकिन तनाव इतना हो गया था कि उसे तलब लग आई। दराज में दो-तीन अलग-अलग ब्रांड के पैकेट, लाइटर और एक एश ट्रे रखी थी। समर ने अपना ब्रांड उठा कर उसमें से एक सिगरेट निकालकर सुलगाई और एश ट्रे को हाथ में लेकर दरवाज़े पर आकर खड़ा हो गया। बरसात की चादर दूर तक हर चीज़ को अपनी आग़ोश में लिए हुए थी। पीछे किचन में कुकर तीसरी सीटी बजा रहा था।
***
‘मैंने आपसे पहले ही कहा था कि पत्ते के तीन ढाक ही निकलेंगे, लेकिन नहीं आप को तो ब्योमकेश बख्शी बनने की ख़ब्त चढ़ी थी। आप तो शरलाक होम्स के भतीजे बनना चाहते थे। और आज आ गए हैं मुँह लटकाए मेरे सामने कि वह पत्र फ़र्ज़ी था, ऐसा कुछ नहीं है।’ अरिवंद पाण्डेय, समर पर गरज रहा है बहुत देर से और समर सर नीचा किए चुपचाप सुन रहा है।
‘आप तो मुझे ग़लत सिद्ध करने निकले थे न, मुझे ? मेरी पच्चीस साल की नौकरी को ? तो करते न, हथियार क्यों डाल दिए।’ अरविंद पाण्डेय का दिन है आज। ‘इसीलिए कहा जाता है कि डायरेक्ट सेलेक्शन बंद होने चाहिए, ट्रेनिंग अपनी जगह होती है और अनुभव अपनी जगह। दुनिया की कोई भी ट्रेनिंग अनुभवों की जगह नहीं ले सकती। हमारे पास पच्चीस सालों की फील्ड नॉलेज है, पच्चीस सालों का। घांस नहीं काटी है हमने पच्चीस साल। कल के रंगरूट ट्रेनिंग ले-लेकर आ गए हैं हमें सिखाने।’ अरविंद पाण्डेय ने मौक़े का फ़ायदा उठाकर एक और कमज़ोर नस पर प्रहार किया। समर ने इस पर भी कोई उत्तर नहीं दिया। आज उसके पास उत्तर है भी नहीं।
सामने जो फाइल पड़ी है एसडीओपी की टेबल पर, ये समर की ही ओर से दिया गया जाँच प्रतिवेदन है। उस पत्र के बारे में जाँच प्रतिवेदन। इस फाइल में काफी सारे सपोर्टिंग डाक्यूमेंट्स लगे हैं। डॉक्टर की जाँचों, दो बार की एंजियोप्लास्टी और एक बार के बायपास के मेडिकल सर्टिफिकेट, किडनी की जाँच की रिपोर्ट्स, दवाइयों के पर्चे, डेथ सर्टिफिकेट। रिश्तेदारों की जानकारी, बेटियों की जानकारी, पत्नी के बारे में जानकारी। बैंक डिटेल्स, पैंशन डिटेल्स, प्रापर्टी के काग़ज़ और भी जाने कौन-कौन से काग़ज़। और समर की ओर से दिया गया कन्क्लूज़न कि पत्र में जो कुछ भी कहा गया है, वह बिल्कुल निराधार है, ऐसा कोई भी कारण नहीं है जिसके चलते हत्या की जाए। यह कन्क्लूज़न एक प्रकार से पराजय की स्वीकारोक्ति थी अरविंद पाण्डेय के सामने, और इसीके चलते अरविंद पाण्डेय का आज दिन था।
‘अच्छा हुआ कि प्रतिवेदन भी साथ ही ले आए हो, एसपी साहब दो बार पूछ चुके हैं मुझसे इस बारे में। मैंने कह रखा है कि कुछ न कुछ तो निकलेगा ही।’ अरविंद पाण्डेय ने फाइल उठाकर उसमें रखे काग़ज़ों को उलटते-पलटते हुए कुछ लापरवाही से कहा ‘उन्हें भी निराशा होगी कि पुलिस को एक जेम्स बांड मिलते-मिलते रह गया।’ एसडीओपी अरिवंद पाण्डेय की इच्छा है कि समर कोई उत्तर दे इन चुभती हुई बातों को सुनकर, लेकिन समर तो आज मुँह पर ताला लगाकर आया है। जो कुछ कहना है, सब कुछ अपने प्रतिवेदन में कह दिया है।
‘ठीक है जाइए आप, मैं अपनी टीप लगाकर यह फाइल एसपी साहब के पास भेज देता हूँ, जो एक्शन लेना होगा, वो ही लेंगे आपके ख़िलाफ़।’ अरविंद पाण्डेय ने कुछ कठोर स्वर में कहा। शायद वह समर को घिघियाते हुए देखना चाह रहा है, गिड़गिड़ाते हुए कि सर इस बार माफ़ कर दीजिए। हो सकता है अगर समर उस स्तर तक उतर कर गिड़गिड़ा ले, जहाँ पाण्डेय का इगो सेटिस्फाइड हो जाए, तो वह कोई एक्शन ना भी ले। मगर समर गिड़गिड़ाना तो दूर की बात, एक शब्द भी नहीं निकाल रहा है मुँह से। यही बात पाण्डेय के ग़ुस्से में घी डालने का काम कर रही है। पाण्डेय ने जैसे ही जाने को कहा, वैसे ही समर कुर्सी पर से उठा और सैल्यूट करके चैम्बर से बाहर निकल गया।
बाहर आकर देखा तो बरसात हो रही है तेज़। ‘बैठिए सर, बारिश तेज़ हो रही है, ऐसे में कैसे जाएँगे।’ बाहर बैठे एसडीओपी के बाबू ने अदब से उठते हुए कहा। समर ने मुस्कुरा कर उसे देखा और उसकी टेबल के पास रखी कुर्सी पर बैठ गया। ‘चाय पिलवाऊँ सर बढ़िया कड़क, अदरक वाली ?’ कहते हुए बाबू ने बिना समर के उत्तर की प्रतीक्षा किए पास खड़े सिपाही को दो उँगलियों का इशारा कर दिया।
समर कुर्सी पर बैठा बाहर देखने लगा। बारिश शुरू ही हो रही थी। कुछ देर में और तेज़ी पकड़ेगी। अचानक बहुत तेज़ कौंध के साथ बिजली की एक तेज़ लकीर आसमान से लेकर ज़मीन तक खिंच गई और उसके बाद कान फाड़ देनी वाली गड़गड़ाहट की आवाज़ हुई।
‘कहीं पास ही गिरी है।’ बाबू ने कहा। समर विचारों में खोया हुआ था। उसे लगा यह बात सामने बैठा बाबू नहीं कह रहा है, यह तो उस वाली बरसात की रात की ध्वनियाँ हैं।
‘कहीं पास ही गिरी है।’ बहुत तेज़ कौंध और भीषण कड़कड़ाहट के शांत होते ही महिला ने कहा था। समर और वह दोनो डायनिंग टेबल पर बैठे खिचड़ी खा रहे थे।
‘हाँ कहीं बहुत ही पास गिरी है।’ समर ने चम्मच में खिचड़ी भरते हुए उत्तर दिया था। खिचड़ी सचमुच बहुत स्वादिष्ट बनी थी। समर की प्लेट में और भी काफी कुछ खाने का सामान रख दिया था महिला ने, जबकि खुद की प्लेट में केवल खिचड़ी और साथ में थोड़ा सा दही लिया था।
महिला अपनी खिचड़ी समाप्त करके जब पानी पी रही थी, तब समर ने लोअर की जेब से वह पत्र निकाल कर महिला की ओर बढ़ाया था। महिला ने उस पत्र को हाथ में लेकर उस पर उचटती सी एक नज़र डाली थी और बिना खोले ही उसे टेबल पर रख दिया था।
‘पढ़िये तो इसे...।’ समर ने अचार की फाँक को चम्मच से काटने का प्रयास करते हुए कहा था।
‘पढ़ चुकी हूँ मैं इसे.....।’ महिला ने कुछ लापरवाही के स्वर में उत्तर दिया था। उत्तर सुनकर समर का हाथ एकदम रुक गया था और चेहरे पर आश्चर्य के भाव आ गए थे।
‘पढ़ चुकी हैं! कब ?’ समर ने चम्मच को प्लेट में रखते हुए पूछा था।
‘मैंने ही लिखा है यह पत्र, लिखा है तो पढ़ा भी होगा।’ महिला का स्वर एकदम शांत और स्थिर था। समर मुहावरे की भाषा में कुर्सी से उछल पड़ा।
‘आपने लिखा है....? इसका मतलब...?’ समर जो कुछ कहना या पूछना चाह रहा था, वह वाक्य बनकर ज़ुबान पर नहीं आ पा रहा था। महिला उसी प्रकार गंभीर और स्थिर बनी हुई थी।
‘इसका मतलब यह कि इस पत्र में जो कुछ भी लिखा है, वह एकदम सच है, कुछ भी झूठ नहीं है।’ महिला के दूसरे उत्तर से समर की स्थिति और विचित्र हो गई थी। वह हैरत में डूबा महिला की ओर देख रहा था।
‘इतने आश्चर्य में मत पड़ो, सब बताती हूँ मैं तुमको।’ महिला ने कुछ ठहरे स्वर में कहा था ‘असल में जो कुछ भी इस पत्र में लिखा है, वह सच इसलिए कह रही हूँ, क्योंकि वह सब कुछ मैंने ही किया है।’ महिला ने एक-एक शब्द ठहर-ठहर कर कहा, तौल-तौल कर।
‘लेकिन क्यों....?’ समर को लगा था कि इस प्रश्न का वैसे कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि महिला ने इतनी देर से जो अपनी कहानी सुनाई है, उसमें इस क्यों के बहुत सारे उत्तर छिपे हैं।
‘क्योंकि मैं जीना चाहती थी। कुछ दिनों के लिए ही सही, पर जीना।’ महिला के स्वर में दृढ़ता आ गई थी। ‘पिछले चार पाँच सालों में मुझे भी सारी बीमारियाँ हो गईं थीं। इस उम्र में जो होती हैं, वह सारी बीमारियाँ। मुझे लगने लगा था कि मैं शायद उनके पहले ही मर जाऊँगी। और उनसे पहले मरना मुझे मंज़ूर नहीं था।’ कहते हुए महिला ने पानी का गिलास उठा कर उसमें से एक बड़ा सा घूँट भरा और वापस रख दिया था।
‘अगर उनसे पहले मर जाती, तो जी ही कब पाती? मायके में जी नहीं पाई, यहाँ आकर भी जी नहीं पाई, तो पैदा ही क्यों हुई मैं? इसलिए मैं उनके बाद मरना चाहती थी, कम से कम दो-तीन साल जीकर।’ महिला ने शांत स्वर में कहा था। ‘मैं पैदा होते ही एक गहरी काली रात में फँस गई थी। एक लम्बी और असमाप्त रात में। उस रात में स्थिर खड़ी मैं हर पल, हर क्षण इसी उम्मीद पर, इसी प्रतीक्षा में जी रही थी कि सुबह अब होती है..... अब होती है..... अब होती है....।’ अंतिम तीन टुकड़े महिला ने बहुत ही भीगे हुए स्वर में कहे थे।
‘लेकिन कैसे? मेरा मतलब आपने उनको कैसे ? किस तरह से....?’ समर जो बात पूछना चाह रहा था, उसे पूछने के शब्द नहीं मिल रहे थे उसे।
‘एक अठहत्तर साल के बूढ़े और बीमार आदमी को मारने के लिए कुछ ख़ास नहीं करना होता, दवाओं का हेर-फेर कर दो, वही बहुत है। उस पर हाइपोग्लाइसीमिया के मरीज़ को तो और भी आसानी से.....।’ कहते हुए बात छोड़ दी महिला ने ‘छोड़ो उस बात को, मैं उस पर चर्चा नहीं करना चाहती कि कैसे किया।’ समर को लग रहा था कि आसमान में चमकने वाली सारी बिजलियाँ एक साथ उस पर ही टूट रही हैं। वह स्तब्ध सा बैठा था कई सारे मुहावरे उस पर लागू हो रहे थे, ‘साँप सूँघ जाना’, ‘पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक जाना’ आदि आदि। वह कुछ देर तक उसी स्थिति में रहा था।
‘लेकिन फिर यह पत्र..? यह क्यों ?’ समर ने अपने आप को सँभालते हुए पूछा था।
‘अपराध बोध.... हर अपराध के बाद सबसे ज़्यादा अपराध बोध ही परेशान करता है। मुझे भी कर रहा था। बहुत ज़्यादा कर रहा था। मैंने अपने तरीके से जीने के लिए वो सब कुछ किया था, लेकिन यह अपराध बोध मुझे जीने ही नहीं दे रहा था। मैंने कहीं पढ़ा था कि अगर कन्फ़ेशन कर लिया जाए तो अपराध बोध कम हो जाता है। बस यही सोच कर......’ कहते हुए महिला रुक गई थी कुछ देर के लिए ‘बस यही सोच कर पत्र लिख दिया था कि अगर पत्र पढ़कर वर्दी में कोई पुलिस वाला मेरे पास आएगा, तो चुप रह जाऊँगी। लेकिन...... लेकिन अगर पुलिस की वर्दी के अंदर कोई इन्सान मेरे पास आएगा, तो उसके सामने कन्फ़ेशन कर लूँगी। फिर उसे जो करना हो वो करे मेरे साथ।’ कह कर महिला चुप हो गई थी।
उसी समय बाहर तेज़ बिजली चमकी थी और समर ने उस कौंध में देखा था डायनिंग टेबल के दूसरे सिरे पर बैठी उस महिला को, और देखता ही रह गया था।
(समाप्त)

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