लड़की का रंग शाम के
डूबते हुए सूरज का रंग था। वैसे तो सूरज डूबने से पहले कई रंग बदलता है। डूबने
वाली हर चीज़ कई रंग बदलती है। शायद इस कोशिश में कि किसी सूरत किसी रंग तो डूबने
से बचा जाए। ख़ैर तो डूबते सूरज के उस रंग वाली लड़की थी जो रंग लाल और नारंगी के
बीच आता है। कभी कभी पूरा आसमान भी उस रंग में रंग जाता है। यहाँ से वहाँ तक।
लड़की की उम्र देह में सुगंध के कल्ले फूटने वाली उमर थी। अँखुआने की उमर थी।
लड़की क़स्बे के सरकारी स्कूल में पढ़ती थी। प्राइवेट स्कूल में इसलिए नहीं पढ़ती
थी कि परिवार के लोग उसे केवल लड़कियों के स्कूल में पढ़ाना चाहते थे। प्राइवेट स्कूल
जो क़स्बे मे था वो को एड था। परिवार ऐसा क्यों चाहता था, इसकी चर्चा आगे। दो चोटियों में लाल रिब्बन बाँधे,
सफेद शलवार तथा आसमानी रंग की कुरती पर
सफेद दुपट्टा डाले स्कूल जाती थी। समूह में जाती थी। समूह में इसलिए कि सुरक्षित रहे।
सुरक्षित...? किससे...? हम आप से। स्कूल में उसका ये अंतिम साल था।
अगले साल उसको कॉलेज जाना था। कॉलेज अभी से उसके सपनों में आता था। कॉलेज, जो उसे सफेद आसमानी रंग की सरकारी यूनिफार्म से
मुक्ति दिलाने वाला था। उसके सपनों में रंग भरने वाला था। लड़की के पास अपना
मोबाइल नहीं था। मगर उसकी इच्छा थी कि उसका एक हो। मोबाइल। मोबाइल उसे सपनों के दरवाज़े
को खोलने वाली चाबी लगता था। वो मोबाइल में गाने डाल कर उनको हैडफोन में लगा कर सुनना
चाहती थी। गाने जो इन दिनों चल रहे थे -हम तेरे बिन अब रह नहीं सकते, तेरे बिना क्या वजूद मेरा.... टाइप के गाने। अभी
लड़की को पता नहीं था कि ये गाने उसे क्यों अच्छे लगते हैं, लेकिन वो इनको अकेले बैठ कर देर तक सुनना चाहती थी।
उसने अपनी कॉपी में उन सब गानों की एक लिस्ट बना रखी थी जो वो सुनना चाहती थी। ये
लिस्ट घटती-बढ़ती रहती थी। लड़की का परिवार अच्छा संपन्न परिवार था। चाहता तो उसे अभी
मोबाइल दिला सकता था। मगर नहीं, क्यों...?
उसकी चर्चा भी आगे।
लड़की जहाँ रहती थी वो
एक क़स्बा था। न गाँव, न शहर। बीच
का। भूतकाल का गाँव, भविष्य का
शहर। कुछ ऊँघता हुआ और अनमना सा क़स्बा था। जहाँ दोनों रंग लगभग बराबर बराबर फैले
हुए थे। हरा रंग भी और गाढ़ा सिंदूरी रंग भी। रह रह कर दोनों रंग आपस में टकराते
भी रहते थे। हैरत की बात ये होती की जब भी दोनो रंग टकराते तो तीसरा रंग गाढ़ा लाल
कत्थई बनता। जो सड़कों पर दीवारों पर, इधर, उधर बिखरा मिलता। रंग
विज्ञान के हिसाब से तो दोनों को मिलाने पर गाढ़ा लाल रंग नहीं बनना चाहिए,
पर बनता था। कुछ दिनों तक ये गाढ़ा लाल
रंग यूँ ही बिखरा रहता। फिर बारिश हो जाती और सब धुल जाता। दीवारों पर से, सड़कों पर से, हर जगह से। सामान्य दिखने लगता। मगर वो गाढ़ा लाल रंग
कहीं जाता नहीं था। लोगों के अंदर उतर जाता था। स्याह काले रंग में बदल कर। फिर
इंतज़ार करता था कि कब मौक़ा मिलते ही दोनों रंगों को आपस में टकरा दे और कब वो फिर
निकल पड़े। क़स्बे का मानना था कि लड़कियों को हवा और पानी से बचा कर रखना चाहिए।
अचार की तरह। अचार और लड़कियाँ दोनो ही हवा और पानी से ख़राब हो जाते हैं। सो क़स्बा
ऐसा करता भी था। मगर इधर कम्प्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल के
माध्यम से जो हवा और पानी आने लगा था उसको रोकने में बड़ी परेशानी आ रही थी क़स्बे
को। जो दिखता हो उसे तो रोका जा सकता है पर जो दिखता ही नहीं हो उसे...? अब आपने तो अचार को ख़राब होने से बचाने के लिए
बरनी में बंद कर दिया मगर जो हवा और पानी ही बरनी के अंदर छिप-छिपा के पहुँच गए तो...?
तो हवा और पानी छिप-छिपा कर लड़कियों तक
पहुँचने लगे थे। बँद पड़े दरवाज़ों, खिड़कियों और रौशनदानों की दरारों से छन-छन कर।
लड़की का परिवार डूबते
सूरज के उस गहरे सिंदूरी रंग में गहरा रंगा हुआ परिवार था। गाढ़ा और गहरा रंग।
इतना गाढ़ा और गहरा कि ज़रा अँधेरे में देखो तो काला ही दिखे। गाढ़े और गहरे को
काला होने में समय नहीं लगता। परिवार का मुखिया लड़की का पिता था। पिता, जिससे लड़की ने आज तक कभी बैठ कर बात नहीं की थी।
कभी उसके कंधे पर लाड़ से झूली नहीं थी। हालाँकि वो ऐसा करना हमेशा चाहती थी। मगर
पिता... पिता था। लड़की का पिता बहुत कम मुस्कुराता था। हँसता तो कभी था ही नहीं।
जबकि लड़की को हँसना और मुस्कुराना बहुत पसंद था। मगर ये दोनों काम वो घर में नहीं
कर पाती थी। क्योंकि पिता को ये पसंद नहीं था। लड़की ने अपनी माँ को भी ये दोनो
काम करते नहीं देखा था। लड़की स्कूल में अपनी सहेलियों के साथ हँसती थी। हँसती थी
मगर मास्टरों से बचकर, क्योंकि सारे
मास्टर उसके पिता के मुँहलगे थे। यदि कोई भी मास्टर हँसते देख लेता तो विशेष रूप
से यही बात उसके पिता को बताने शाम को घर आ जाता। भैया जी आज बिटिया हँस रही थी
स्कूल में, ज़रा ध्यान रखियेगा। मास्टर
को पिता के सामने अपने नंबर बढ़ाने होते थे। जब कभी पिता नहीं होते तो लड़की टीवी
पर कॉमेडी शो लगा कर हँसती थी। और देखती थी कि जिस बात पर वो हँस हँस कर लोट पोट
हो रही है, उस पर उसकी माँ कोई प्रतिक्रिया
नहीं दे रही है। बिटिर-बिटिर ताकते हुए सब्ज़ी काट रही है। लड़की ऐसे भी नहीं हँसना
चाहती थी। ऐसे मतलब कॉमेडी शो पर हँसना। वो दूसरे तरीके से हँसना चाहती थी। बिना
बात के हँसना। बिना कारण के हँसना। खिल-खिल, खुल-खुल हँसना। हाथ उठा कर हँसना। अकेले में हँसना। लेकिन
उसे पता नहीं था कि वो इस प्रकार हँसना क्यों चाहती है।
लड़की का पिता ऐसा ही
था। वो राजनीति में था। उसी रंग की राजनीति में, जिस रंग का वो था। गाढ़े सिंदूरी रंग की राजनीति में।
राजनीति में अच्छी खासी हैसियत के साथ वो था। वो अपने क़स्बे और आस पास का मण्डल
अध्यक्ष था। मण्डल का मतलब वो मण्डल नहीं, बल्कि एक तहसील का इलाका। उसके पास और उसकी पार्टी के पास अपने रंग की रक्षा
की जिम्मेदारी थी। ये पार्टी ही असल में उस रंग की रक्षा के लिए बनी थी। उस रंग की
रक्षा का मतलब था परम्पराओं की रक्षा करना। परंपराएँ जिनमें लड़की को को एड में नहीं
पढ़ाना, मोबाइल से दूर रखना और
हँसने मुस्कुराने से भी दूर रखना शामिल था। और हाँ हरे रंग से भी। गाढ़े हरे रंग
से। न जाने क्या आकर्षण था एक दूसरे के प्रति हरे और गाढ़े सिंदूरी रंग में कि एक दूसरे
की तरफ खिंच पड़ते थे। शायद ये कन्ट्रास्ट का खिंचाव था। जैसे आँखें नए दृश्य
देखना पसंद करती हैं, नाक नई गंध
सूँघना, कान नई ध्वनियाँ सुनना
और ज़बान नए स्वाद चखना वैसे ही देह....। देह तो देखती भी है, सूँघती भी है, सुनती भी है और चखती तो है ही। तो देह भी तो चाहती ही
होगी कि जो कुछ है उससे हट कर कुछ नया हो। नया... या फैण्टेसी...? अब नए में क्या हो सकता है। देह तो देह ही है।
तो ये कि दूसरे रंग की देह मिले। शायद वो कुछ अलग होती हो। अलग दिखे, अलग गंध, अलग ध्वनि और अलग स्वाद। इसी नये की तलाश में ये
रंग एक दूसरे की तरफ खिंचते थे। इल्ज़ाम ये भी था कि हरा रंग इस खिंचाव के लिए
बाक़ायदा कार्य कर रहा है। योजनाबद्ध तरीके से। प्रेम द्वारा धर्म युद्ध। हरे रंग
का विस्तार करने के उद्देश्य से। अपनी तरफ खींचना और फिर अपने रंग में रँग कर हरा बना
लेना। हमेशा के लिए। गाढ़े सिंदूरी रंग की लड़कियों को इसीलिए झुण्ड में स्कूल
भेजा जाता था। और गायों को भी। जंगल की तरफ। लड़कियों और गायों दोनों को हरे रंग
से ख़तरा है ऐसा लड़की के पिता तथा पिता जैसे दूसरे लोगों का मानना था।
लड़का गाढ़े हरे रंग
का ही था। कहानी तो तभी बननी थी जब लड़का हरे रंग का हो। कहानियाँ बनती ही तभी हैं
तब कुछ अलग हो, कुछ असामान्य
हो। लड़का सुंदर था, आकर्षक था।
वैसे कहा ये जाता था कि हरे रंग के लड़के सुंदर और आकर्षक होते ही हैं। कहा ये भी
जाता था कि हरे रंग के लड़के कुछ खिला कर दूसरे रंग की लड़कियों को अपने वश में कर
लेते हैं। जो भी हो मगर लड़के में सब कुछ आकर्षक था। किसी क़स्बे की लड़की के फिल्मी
हीरो की तरह। लेकिन उसकी आँखें उदास थीं। लड़का, लगभग लड़की की उम्र का ही था। देह में उमर यहाँ वहाँ से
उग रही थी। कहते हैं कि एक उम्र ऐसी होती है जिसमें हर कोई ख़ूबसूरत दिखता है।
लड़का उसी उम्र में था। मगर वो उम्र के कारण ख़ूबसूरत नहीं था, सचमुच ही था। मोटर साइकिल पर सवार होकर निकलता
तो हवा भी बोसे लेती। लड़का वो सब नहीं करता था जो हरे रंग के लड़के अमूमन करते
थे। मसलन सफेद-काले चौखाने का गमछा गले में डालना, सिर पर गोल जालीदार टोपी पहनना आदि आदि। ये सब तो उसने
कभी नहीं किया। त्यौहार के दिन भी नहीं। लड़का अपनी स्टाइल में रहता था। जो मन
करता वो पहनता। मरजाना ऐसा था कि जो पहन लेता वो ही उस पर जमता। लड़के का पिता भी
राजनीति में था। छोटी मोटी पार्षदी के चुनाव अपने इलाक़े से लड़ता और जीतता भी था। मिलनसार
था। सबके सुख दुख में शामिल होता था। इसीलिए न केवल हरे वोट बल्कि दूसरे रंग के वोट
भी उसे मिलते थे। आर्थिक स्थिति ठीक ठाक थी। ठीक ठाक क्या, अच्छी ही थी। क़स्बे में एक बिजली के सामान की दुकान थी।
छुट-पुट सामान बेचने के साथ घरों में बिजली फिटिंग और रिपेयरिंग का काम था। पास के
एक गाँव में खेती की थोड़ी ज़मीन भी थी। तालाब से लगी हुई। ज़मीन कुछ सालों पहले
ही ख़रीदी थी। प्रापर्टी के भावों में बूम बूम होने से पहले। कोई ज़रूरतमंद आदिवासी
बेच रहा था। ज़रूरत बड़ी थी, सस्ती
मिल गई, सो ले ली। दुकान,
खेती और राजनीति। लड़का स्कूल की पढ़ाई
पूरी करके कॉलेज में था। कॉलेज में एडमीशन ले लिया था, कॉलेज में जाना तो होता नहीं था इसलिए दिन भर पिता की
दुकान पर बैठता था। लड़के का पिता मिलनसार था सो लड़का भी वैसे ही था। पिता पर पूत
बाप पर घोड़ा....। उसके दोस्त हरे रंग के तो थे लेकिन उससे ज्यादा दूसरे रंग के थे।
सबके घरों में उसका आना जाना था। दुकान बिजली की थी सो ऐसा कौन सा घर होगा जिसे बिजली
वाले बंदे की महीने में दो चार बार ज़रूरत न पड़ती हो।
लड़का दुकान से उठकर
अपनी बहन को स्कूल छोड़ने और वापस लेने जाता था। कहानी की माँग के हिसाब से ऐसा
नहीं किया जा रहा है लेकिन, हक़ीक़त
यही थी कि लड़के की बहन लड़की के साथ ही पढ़ती थी। जो न पढ़ती तो हरा लड़का और सिंदूरी
लड़की कहाँ से मिलते। मगर पढ़ती थी सो पढ़ती थी। लड़का स्कूल के बाहर ही अपनी बहन
को छोड़कर चला जाया करता था। चूँकि लड़कियों का स्कूल था इसलिए अंदर तो जा नहीं
सकता था। अपनी मस्ती में आता और बहन को स्कूल के बाहर उतार कर मोटर साइकिल को घुमाता
और वापस चला जाता। हवा के परों पर सवार होकर आता और लौट जाता। कहावत की भाषा में कहें
तो आँख उठाकर भी इधर उधर नहीं देखता था। सुनता भी नहीं था, कानों में मोबाइल के हैडफोन के प्लग जो फँसे रहते थे। बेपरवाह
था सबसे। आस पास की पूरी दुनिया से बेपरवाह। अपने आप से ही प्यार करता हुआ। नारसीसस
की तरह। या शायद अतिरिक्त सावधानी बरतता था। सावधानी इसलिए कि पिता ने कह रखा था सावधानी
बरतने को। वही प्रेम द्वारा धर्म युद्ध की चर्चा के चलते। पिता राजनीति में था इसलिए
आशंकित रहता था। कहीं लौंडे से कोई ग़लती हो गई तो जमी जमाई राजनीति चौपट। आग का रंग
तो एक ही होता है और आग, रंग देखकर
चीज़ों को अपने लपेट में नहीं लेती। और ये जो आशिक़ी की आग है, ये तो असली आग से भी ख़तरनाक होती है। नज़र से
दिल और दिल से देह तक, एक एक कर,
जब तक बारी बारी सब को नहीं जला देती,
तब तक चैन नहीं लेती। और चैन तो उसके बाद
भी लेती हो, ऐसा भी नहीं है। जब
देह तक पहुँचती है तो फिर-फिर जलाती है, और... और... और...। इस सिरे से, उस सिरे से..।
उन दिनों आशिक़ी 2 फिल्म आई ही थी। लड़की उसके गानों को इधर उधर
से सुनती और गानों के बोलों को अपने अंदर चुपके चुपके बीजती थी। सब झूठे-झूठे वादे
थे उनके, चल पीछे-पीछे आया तू
जिनके, वो पिया आए ना....। कौन पिया?
कैसे पिया...? लड़की को पिया शब्द का ठीक ठाक अर्थ भी नहीं पता था।
लेकिन अर्थ के अलावा बाकी का बहुत कुछ पता था। यदि किसी चीज़ के बारे में पूरी
जानकारी हो तो इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपको उसकी परिभाषा या अर्थ पता है
या नहीं। तो आशिकी 2 के दिनों की
ही बात है। लड़की अपने झुण्ड में शामिल होकर धीरे धीरे स्कूल की तरफ बढ़ रही थी। उधर
लड़का अपनी बहन को छोड़कर मोटर साइकिल मोड़ रहा था। ये रोज़ की घटना थी। कुछ नया
नहीं था इसमें। रोज़ वो आता था। रोज़ लड़की भी इधर से जाती थी। कभी रास्ते में,
कभी स्कूल के बाहर, उसे मोटर साइकिल पर। कभी बाज़ार की ओर जाते समय
उसे दुकान पर बैठा देखती भी थी। लड़की के घर से निकल कर ज़रा दूर चलते ही लड़के की
दुकान थी। तो लड़की तो उसे देखती ही थी। लेकिन, वैसे ही देखती थी जैसे दिन भर दूसरी चीज़ें देखती थी।
सड़क, सहेलियाँ, मकान, कुत्ते, बकरियाँ,
पेड़, सड़क, सहेलियाँ,
मकान, कुत्ते, बकरियाँ, बिजली के खम्बे,
माँ, पिता। नया ये था कि आशिक़ी 2 के गाने लड़की के सिर चढ़े हुए थे। या शायद उमर ही
सिर चढ़ चुकी थी। गाने का तो बहाना होता है। हर उमर किसी न किसी गाने को ही दोष
देती है। हर उमर के अपने गाने होते हैं। मगर हक़ीक़त ये है जब उमर आ जाती है तो ऐसा
ही होता है। लड़की मन के अंदर धीरे धीरे गुनगुना रही थी - क्योंकि तुम ही हो,
अब तुम ही हो, जिंदगी....अब तुम ही हो...चैन भी, मेरा दर्द भी, मेरी आशिक़ी अब तुम ही हो..... और उधर हरे लड़के ने अपनी
मोटर साइकिल घुमाई। कामदेव नाम का पात्र और उसका बहुचर्चित पुष्प वाण तो सिंदूरी लड़की
के धर्म में था हरे लड़के के धर्म में तो था नहीं... लेकिन... पात्र धर्म कब देखते
हैं। गाना, मोटर साइकिल, नज़रें। खेल खत्म। फिर बचा ही क्या। लड़की ने
पहली बार देखा कि अरे.... इस लड़के की आँखें तो उदास हैं। डूबी हुई। एक जोड़ी उदास
आँखें इधर और एक जोड़ी मुस्कुराती आँखें उधर उतरीं तो उतरती चली गईं। गहरे और गहरे
और गहरे। क्या ऐसा सचमुच होता है कि जिस को आप रोज़ देख रहे हों, उसे आप अचानक किसी दिन देखें और बस.....। और
ये भी कि उस दूसरे को भी उसी दिन लगे कि.....। उफ़्फ़ ये तो बहुत ज़्यादा टाइमिंग और
संयोग की बात ही हो सकती है।
बहुत दिनों तक ऐसा ही
चलता रहा। कुछ और होने की संभावना भी नहीं थी। मिलें तो जा के किस वीराने में...?
और फिर ये भी तय हो कि मिलना है ही।
दोनों को। लड़के को कहाँ पता था कि लड़की अब उसे अलग नज़रों से देख रही है। अलग
मतलब, उस तरह से नहीं जिस तरह वो
बिजली के खम्बे, पेड़ और कुत्ते
को देखती है। इत्ती दूर से पता चलता है क्या कि नज़रें बदल गईं हैं। बस ये पता
चलता है कि हाँ कुछ तो हुआ है। कुछ कुछ। वो भी ऐसे पता लगता है कि नज़रें अब जान बूझकर
मिलती हैं, उलझती हैं और उलझी ही
रहती हैं। दूर तक, देर तक। दोनो
किनारों को पता रहता है कि कुछ अतिरिक्त देखा जा रहा है। और होता भी वही रहा। हरा रंग
मोटर साइकिल को घुमाता और सिंदूरी रंग आँखों में झाँक लेता। चुप कर। छुप कर। झाँक
लेता उस उदासी में जो आँखों में भरी थी। हरा रंग, उमड़ता हुआ मोटर साइकिल पर धुँआ छोड़ता निकल जाता। फिर
वैसे ही उमड़ता हुआ शाम को आता बहन को वापस लेने और फिर वही....। लड़की हवा में
फैले मोटर साइकिल के धुँए की पैट्रोल मिश्रित गंध को साँसों में भर लेती। खूब गहरी
साँस खींच कर। चाहती कि ये गंध देर तक साँसों में रहे। उतर जाए गहरे कहीं। जहाँ से
लोबान की तरह धीरे धीरे निकलती रहे।
मुहब्बत अपने बहने
के बहाने ढूँढ़ लेती है। इस बात का कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं है कि ऐसा ही हुआ होगा।
लेकिन समझा जा सकता है कि ऐसा ही हुआ होगा। नहीं तो अच्छा ख़ासा होल्डर में लगा हुआ
बल्ब होल्डर से निकल कर ज़मीन पर कैसे गिरा...? हुआ यूँ होगा कि माँ ज़रा इधर उधर हुईं, लड़की ने धीरे से रसोई का बल्ब निकाला और उसे गिरा
दिया। शाम का समय। रात का खाना बनाने की तैयारी। रसोई में अँधेरा। छोटा भाई ट्यूशन
पढ़ने गया। पिता भी घर पर नहीं। और लड़की के अनुसार ...य्य्ये म्मोटे से चूहे ने
बल्ब पर कूद कर उसे गिरा दिया। माँ ने चिरौरी की, बेटी तू ही जाकर ले आ नया बल्ब। लड़की अनिच्छा दिखाती
हुई, भुनभुनाती हुई, एहसान जताती हुई, बड़ी मुश्किल से बल्ब लाने को तैयार हुई। लड़की सँभल-सँभल
कर पैर रख रही थी। उसने माँ को कई बार बात-बात में एक कहावत कहते सुना था कि जहाँ
आग होती है वहीं धुँआ दिखता है। लड़की चाहती थी कि किसी को धुँआ होने का अंदाज़ा
ही न हो।
दुकान पर लड़का कानों
पर मोबाइल का हैडफोन लगाए किसी ग्राहक का सामान पैक कर रहा था। लड़की चुपचाप जाकर
खड़ी हो गई। लड़के ने ग्राहक का पैसा काटते समय काउण्टर के अंदर रखे मोबाइल में लगी
हैड फोन की पिन को खींच कर निकाल दिया और धीरे से स्क्रीन पर नज़र आ रहे स्पीकर के
आइकॉन पर उँगली से थपकी दी। गाना हैडफोन की जगह मोबाइल के स्पीकर में बजने लगा। -अपने
करम की कर अदाएँ.....कर दे इधर भी तू निगाहें.... सुन रहा है न तू.... रो रहा
हूँ मैं....। लड़के ने मोबाइल की तरफ हैरत से यूँ देखा मानो हैडफोन की पिन ग़लती से
निकल गई हो। कान से हैडफोन निकाला और मोबाइल के साथ उसे काउण्टर के एक तरफ पटक दिया।
उसी तरफ जिस तरफ लड़की खड़ी थी। गाना अब भी बज रहा था। ग्राहक गया। लड़का और लड़की।
गाना। पसीना। थरथराहट। पहले भी तो कई बार आ चुकी थी वो यहाँ। सामान लेने। फिर
आज....? -वक़्त भी ठहरा है,
कैसे क्यूँ ये हुआ, काश तू ऐसे आए, जैसे कोई दुआ। गाना अपने काम से लगा हुआ था। लड़की ने
टूटा हुआ बल्ब काउण्टर पर रख दिया। लड़के ने उसे उलट पलट कर देखा और फिर मुड़कर
रैक में से बल्ब निकालने लगा। लड़की भरपूर देख रही थी। गाना ख़त्म हो गया था और अब
अगला गाना बज रहा था। उसी गाने का फीमेल संस्करण। -सुन रहा है न तू, रो रही हूँ मैं...। सुन रहा था। वो सब सुन रहा
था। लड़का बल्ब निकाल कर लाया। काउण्टर के पास लगे होल्डर में लगा कर चैक किया। और
उसी बल्ब की दूधिया रौशनी में लड़की की तरफ देखा। हर ग्राहक की तरफ देखता था। ये बताने
कि देख लो बल्ब चालू है। लड़की ने देखा की लड़के की आँखें उससे कहीं ज़्यादा उदास हैं
जितनी उसे दूर से दिखती थीं। बल्ब की हल्की दूधिया रौशनी उस उदासी को और गहरा कर
रही है। उदासी का अपना आकर्षण है। उदासी हमेशा पास खींचती है। नदी को भी और स्त्री
को भी। खींच लिया। -मंज़िलें रुसवा हैं, खोया है रास्ता, आए ले
जाए, इतनी सी इल्तिजा। गाना,
लड़का, लड़की, दुकान,
बल्ब, हरा रंग, सिंदूरी रंग। गड्डमगड्ड, गड्डमगड्ड।
कुछ नहीं हुआ। बहुत
कुछ हो गया। उस दिन के बाद लड़के की मोटर साइकिल कुछ अधिक तरंग में चलने लगी। स्कूल
के बाहर कुछ धुँआ भी अधिक छोड़ने लगी। हिल-हिल, मिल-मिल, खिल-खिल, दिल-दिल। ग्रुप
की सहेलियों को धुँआ दिखने लगा था। और आग भी। मगर सहेलियाँ थीं, समाज नहीं। चुप रहीं। टहोके में सहेली को छेड़ती
रहीं -आ गई मोटर साइकिल...। लड़की के गालों में हर टहोके पर गुलाब खिल उठते। मोटर साइकिल
हवा में उड़ती हुई आती दिखाई देती। और उस पर का सवार...? क्या ये सपना है? लड़की अब चाहती थी कि हवाओं को अपने सफेद दुपट्टे में
बाँध ले। झझ्झरती हुई बरसात में बूँदों की आवाज़ में आवाज़ मिला कर हँसे। हँसती
रहे, हँसती रहे। बादल के साँवले टुकड़े
को हथेली में भर कर सूँघती रहे। सूँघती रहे, सूँघती रहे। क्योंकि ये साँवला टुकड़ा मोटर साइकिल के
धुँए की तरह दिखाई देता है। शायद इसमें गंध भी वैसी ही हो। शायद लड़के की गंध भी
ऐसी ही हो, पैट्रोल मिली धुँआली-धुँआली
गंध। लड़की को ख़ुद भी पता नहीं था कि वो किसको सूँघना चाहती थी। बादल को, पैट्रोल को या लड़के को..। या शायद सबको।
पृथ्वी की हर एक गंध को।
चूहे ने मौक़ा ताड़ कर
फिर बल्ब गिरा दिया। बरसते पानी में गिरा दिया। छाता लिए अभिसारिका चल पड़ी। सड़क
पर बह रहे बरसाती पानी से बचने का और आसमान से गिरते में भींगने का प्रयास करती।
इस बार लड़का, पाकिस्तानी गायक
सज्जाद अली को सुन रहा था। पाकिस्तानी गायक को सुन रहा था, ग़लत कर रहा था। यही तो इल्ज़ाम है हरे रंग पर। देशद्रोह।
मगर सुन रहा था। दो दिन पहले ही सज्जाद अली के गाने इंटरनेट से डाउनलोड किए थे
मोबाइल में। बिना हैडफोन के सुन रहा था। बरसते पानी में कौन आएगा कुछ लेने। पाँव फैलाए
सोच रहा था। लड़की को। यदि फिल्म होती तो निर्देशक इस सीन में बिजली ज़रूर चमकाता।
मगर हक़ीक़त में नहीं चमकी। बिजली की चमक के बग़ैर लड़की बिजली की दुकान पर थी। -अबके
हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें, जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें....। सज्जाद अली
की आवाज़ बरसात की बूँदों में घुली मिली बरस रही थी। टूटा बल्ब, अच्छा बल्ब, होल्डर। करना तो वही था जो पहले किया था। इसके अलावा
कुछ की गुंजाइश भी कहाँ थी। बल्ब लेकर लड़की पलटी तो बारिश मूसलाधार हो चुकी थी।
हाथ को हाथ न सूझे। लड़की उलझन में भरी दुकान की तरफ पलटी। लड़का काउण्टर पर झुका
बरसात देख रहा था। लड़की का खुला हुआ छाता सिर से पीठ पर आ गया। दुकान ओट में हो
गई। छाते की ओट। सज्जाद अली ने उकसाया -तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फरिश्तों जैसा,
दोनो इन्साँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों
में मिलें....? किसी को कुछ नहीं
दिखा कि छतरी के उस पार क्या हुआ। हमें भी नहीं। बरसात को भी नहीं। सज्जाद अली
को भी नहीं। बस ये हुआ कि कुछ ही देर में लड़की उसी मूसलाधार बरसात में लौटी।
उड़ती हुई, दौड़ती हुई, तैरती हुई।
मगर लड़के की बहन सचेत
थी। उसे पता था सब कुछ। उसे डर था। वही डर जो उसके पिता को था। प्रेम द्वारा धर्म
युद्ध। वो इशारों में लड़की को समझा रही थी कि ये ग़लत है। बहुत ख़तरनाक है। भाई को
भी संकेत दे रही थी कि लड़की सिंदूरी रंग की है, बवाल हो जाएगा। आग से खेल है ये। लेकिन इश्क़ तो अपने
आप में ही खेल है आग का। मस्तानों का खेल जिन्हें दुनिया से यारी क्या। बहन चाह
रही थी ये सब कुछ अपने पिता को बताना। जानती थी कि ये आग उसी का घर जलाएगी। सब कुछ
जला देगी। मगर पिता को बताने से पहले अपने स्तर पर प्रयास कर रही थी। उधर माँ को
भी संकेत मिल गया था। संकेत कि कहीं कुछ तो हुआ है। ख़ैर, ख़ून, खाँसी,
ख़ुशी, बैर, प्रीति,
मदपान, रहिमन दाबे ना दबे जाने सकल जहान। लड़की ने रहीम के इस
दोहे को कोर्स की बुक में पढ़ा था। इसकी संदर्भ सहित व्याख्या हिन्दी की परीक्षा
में लिख कर भी आई थी। मगर भूल गई। कोर्स की चीज़ों को अगले साल भूला ही तो जाता है।
इसमें ग़लती चूहे की भी थी जिसने एक महीने में तीसरी बार फिर से बल्ब फोड़ दिया।
माँ, माँ थी। इधर बल्ब फूटा और
उधर उसके अंदर की छठी बत्ती जल गई। चूहा दिखता तो नहीं है कोई। और बल्ब से से ही
क्या दुश्मनी है उसकी? उसने उस रात
मोमबत्ती जला कर काम चला लिया। माँ सब जानती है। क्योंकि वो भी कभी लड़की रह चुकी
होती है। उसे पता था कि बल्ब कैसे और क्यों टूटते हैं। मगर उसे अभी पता नहीं था कि
बल्ब किसके लिए टूट रहे हैं ?
लड़का, लड़की। दुनियादारी। गाढ़ा हरा रंग, गाढ़ा सिंदूरी रंग। माँ, बहन। जो क़िस्सा था वो अभी मुख़्तसर इतना ही
था। मगर इतना ही रहना कब था। छटपटाहट, छटपटाहट। बहन कमज़ोर पड़ गई, भाई की उदास आँखों को और ज़्यादा उदास देखकर। सुनकर कि भाई मोबाइल पर क्या
सुन रहा है ? सज्जाद अली की उदास
आवाज़ उसके मोबाइल पर हर समय रहती है। -दिसंबर का समाँ, वो भीगी-भीगी सर्दियाँ, वो मौसम क्या हुआ, न जाने कहाँ खो गया, बस यादें बाक़ी.....। प्रेम द्वारा धर्म युद्ध के ख़तरे
के बावजूद वो दोनों के मिलने का कारण बन गई। बनती रही। कभी इस बहाने तो कभी उस
बहाने। आसन्न संकट का अंदाज़ा उसे था फिर भी। लड़की हँस रही थी। लड़की, लड़के के मोबाइल को छू रही थी। मोबाइल पर फेसबुक,
वाट्स अप और वो, और वो... सब देख रही थी। लड़की कानों में हैडफोन लगाकर
-हम तेरे बिन अब रह नहीं सकते, सुन
रही थी। आत्मा में उतार रही थी। लड़की गाने गा भी रही थी। लड़की एक वर्जित लेकिन इच्छित
दुनिया में प्रवेश कर रही थी। प्रतिबंधित लेकिन अभिप्सित काम कर रही थी। लड़की,
लड़के से भी ज़्यादा इश्क़ में थी। अपने आप
से इश्क़ करने में। लड़के के बहाने जी रही थी अपने आप को। लड़के के अंदर से होकर अपने
सपनों की दुनिया में घुस रही थी। लड़की, लड़की हो रही थी, गाय
से। खुरच कर उतार रही थी उस गाढ़े सिंदूरी रंग को जो उस पर चढ़ा था। जो उसे कुछ भी
करने नहीं देता था।
और हो गया प्रेम द्वारा
धर्म युद्ध। मोटर साइकिल की पिछली सीट पर बैठी लड़की देर तक धुँआ सूँघने के लिए दूर
चली गई। बहुत दूर। उड़ गई। न जाने कहाँ जाकर दोनो रुके। न जाने कहाँ। भागते छिपते।
दोनो। उस रात लड़के ने उदास गाने नहीं बजाए अपने मोबाइल पर। आशिक़ी 2 के लड़की के पसंदीदा उदास गाने भी नहीं। लड़के
ने रामलीला उर्फ गोलियों की रासलीला का गाना बजाया। -अंग लगा दे रे...... मोहे रंग
लगा दे रे...... मैं तो तेरी जोगनिया तू जोग लगा दे रे.......। लड़की ने लड़के की आँखों
में देखा। आँखें अभी भी उदास थीं। उदासी। हरी उदासी। जो किसी दूसरे रंग को पीना चाहती
थी और.....। रात। हर तरफ रात। हरा रंग ठिठक गया था देहरी पर। याद आ गया प्रेम द्वारा
धर्म युद्ध। ठीक देहरी पर। ठीक देह की देहरी पर। -रात बंजर सी है काले खंजर सी है।
जोग लगा दे रे प्रेम का रोग लगा दे रे। संगीत भी तो उकसाता है। लड़के ने मोबाइल के
म्यूजिक प्लेयर पर रिपीट के बटन को उँगली से थपक दिया। यही गाना बजे। बार बार बजे।
बजता रहे। -रास है रात में तेरी हर बात में.....। रास....। हरा रंग। उदास आँखें। स्त्री
को पुरुष की उदासी और नदी को समंदर की उदासी खींच ले जाती है। बहा ले जाती है।
लड़की ने....। उदासी टूटी। हरी आँखें मुस्कुराईं। फिर हँसीं। मोबाइल पर गाना बंद
हुआ और रिपीट के कारण फिर बजने लगा। -अंग लगा दे रे....। अब उसे अनंत काल तक बजना
था। हरा रंग झिमिर-झिमिर टूटा। बिखरा। किनारों से बह कर गहरा सिंदूरी रंग उसमें
मिल गया। मिलता रहा। मिलता रहा। गाना भी उसी प्रकार बजता रहा। बजता रहा। लड़की
ने गहरी साँस भरी। हरे रंग के कोनों से सचमुच पैट्रोल की गंध आ रही थी। धुँआ भी उठ
रहा था। लड़की ने पैट्रोल की गंध को अपने अंदर गहरे बहुत गहरे उतार दिया। हरा रंग
अब ठिठकना नहीं चाहता था। कहीं भी नहीं। -उजली कोरी प्रीत पे आ सतरंग लगा दे
रे.....। हरा रंग अब एक मुकम्मल देह था। और गहरा सिंदूरी रंग भी। देह, गीत, रात, रंग, उजास। गाना रात भर बजता रहा। बंद हो-हो के
फिर-फिर बजता रहा।
क़स्बे में सुगबुगाहट
तो हो गई थी लेकिन जब पिता कहे तब तो गहरा सिंदूरी रंग एक्शन ले। प्रेम के द्वारा
धर्म युद्ध के खिलाफ़ एक्शन। पिता नहीं चाहता था वो सब। अब तक क़स्बे में वही तो
करवाता था ये सब। मोर्चा निकालना, हैंड
बिल बाँटना। ये कार्य उसे ऊपर से दिया गया था। ऊपर से...? किधर ऊपर से...? राजनीति में सब ऊपर से ही दिया जाता है। प्रेम के द्वारा
धर्म युद्ध को रोकने के लिए उसने बाक़ायदा एक दल गठित कर रखा था। जिसका काम ही था
कि अपने रंग के लोगों जाकर समझाए। समझाए कि अपनी बेटियों को हरे रंग से बचाओ। बचा
कर रखो। हरा रंग हर तरफ से आक्रमण कर रहा है। लड़की का पिता प्रेम के द्वारा धर्म युद्ध
विरोधी मोर्चे का संयोजक भी था। और उसके ही घर...। उसका घर एक ख़ामोशी में डूबा हुआ
था। जो नियमित आने जाने वाले थे वे आ-जा रहे थे। कहीं कोई ऊपरी हलचल नहीं थी। मगर अंदर....।
लड़की का पिता सुबह जल्दी कहीं निकल के देर रात को लौट रहा था। देर रात। रात ढाई से
तीन के लगभग। लड़के की दुकान एक दिन तो बंद रही मगर अगले दिन से खुल गई। लड़के का
पिता दुकान पर बैठ रहा था। उसका घर भी सन्नाटे में था। बहन स्कूल नहीं जा रही थी।
मोटर साइकिल जो चली गई थी। कहीं ओर। एक दहशत सी थी जो लड़के के पिता के चेहरे पर देखी
जा सकती थी। जो दुकान में भी ख़ौफ़ पैदा करती हुई डोल रही थी। बल्ब, ट्यूबलाइटें, सीएफएल सब दहशत में थे। काँच के जो ठहरे। काँच दहशत
पैदा भी करता है और ख़ुद भी दहशत में रहता है। काँच होना अपने आप में ही एक मुकम्मल
दहशत है। अंदर भी, बाहर भी।
लड़के के पिता का चेहरा भी हरे रंग के काँच से बना हुआ ही दिखाई दे रहा था।
गाना अगली रात भी वैसे
ही बजा। कुछ और रातों तक बजता रहा। दो या तीन रातों तक और। वैसे ही बजता रहा। साथ
में बजता रहा एक मृदंग भी। और एक बाँसुरी भी। और एक मोर पंख, जो मोर की ही तरह उस गाने पर नाच रहा था। मंद-तेज़,
मंद-तेज़। दृश्य, गंध, स्वाद,
ध्वनि और स्पर्श। पाँचों मिलकर रात भर
रसायन रच रहे थे। हर रात। रात के बाद रात ही हो रही थी। सुबह नहीं, दोपहर नहीं, शाम नहीं। केवल रात। देह की दुनिया में केवल रात ही होती
है। मगर फिर एक रात से पहले सुबह हो गई। होनी ही थी। सुबह। जिसमें लड़की का पिता आकर
खड़ा हो गया। गहरा सिंदूरी पिता। जो लाल हो चुका था। पुलिस के पाँच छः जवानों को सादी
वर्दी में लेकर। राज्य में उसीके रंग की तो सरकार थी। पिता ने बहुत गुपचुप किया
सब। क़स्बे में भी और यहाँ भी। क़स्बे में तो ख़ैर किसी को पता भी नहीं था कि कुछ हो गया
है। अफ़वाहें तो ख़ैर हर कहीं होती हैं। लड़का कोने में बैठा था। लड़की काँधे पर सिर
टिकाए लड़के के मोबाइल से खेल रही थी। और दल आ पहुँचा। पुलिस बाहर रही। पिता,
लड़की और लड़का अंदर। दरवाज़ा बंद। बंद
रहा। बंद रहा। खुला। लड़की पिता के साथ निकली। सधे क़दमों से गाड़ी में जाकर बैठ
गई। लड़का जो पिता को देखते ही दहशत में आ गया था अब हैरत में था। पिता ने लड़की को
गाड़ी में बैठते देखा। मुड़ा। मुस्कुरा कर लड़के का कंधा थपथपाया। और गाड़ी में जा
बैठा। अमूमन ऐसे मामलों में जो तमाशा होता है वैसा कुछ नहीं। सब कुछ सामान्य। लड़के
को हैरत में डूबा छोड़ कर गाड़ी चली गई। धुँआ छोड़ते। मगर ये डीज़ल का धुँआ था। लड़की
को तो पैट्रोल का धुँआ पसंद है।
और उसकी अगली सुबह
क़स्बे की सामान्य सुबह थी। वैसे तो क़स्बे में सब सामान्य ही था लेकिन अब बाक़ी का
भी सामान्य ही था। लड़का दुकान पर बैठा था। लड़की अपने घर में थी। बकरियाँ,
गायें, कुत्ते सड़क पर। मतलब सब कुछ वैसा ही जैसा होता रहा
था। लड़की का पिता अपनी बैठक में पहले की ही तरह आने जाने वालों से मिल रहा था। चर्चाएँ,
मीटिंगें सब कुछ पूर्व की ही तरह। आवेदन
देने वाले आ रहे थे। काम करवाने वाले भी। जैसे पहले भी आते थे। कुछ हुआ ही नहीं
था। कुछ भी तो नहीं। लोग तो वैसे ही बातें करते हैं। अफ़वाहें उड़ाते हैं। कुछ होता
तो क्या सब कुछ ऐसे सामान्य रहता। रह भी सकता था ? पिता ठहाके मार रहा था। बात बात पर। पहले नहीं मारता
था। हँसने से तो उसका बैर था। हँसी तो एक अपराध था। फूहड़ता। गंभीरता को क्षतिग्रस्त
करने के लिए किया गया सबसे बड़ा अपराध। हँसी ने इस दुनिया में सबसे अधिक नुकसान
किया है ये उसे सिखाया गया था। गहरे सिंदूरी दल का जो नियंत्रण दल था उसके सदस्य
कभी नहीं हँसते थे, मुस्कुराते भी
नहीं थे। वे हँसी को ख़त्म कर देना चाहते थे। विशेषकर औरत की हँसी। मगर अब वो ख़ुद
हँस रहा था। अपराध कर रहा था। सामान्य दिखने की कोशिश करना भी कभी कभी कैसे असामान्य
बना देता है आपको। असामान्य या नाटकीय। इस सारे सामान्य में दो स्त्रियाँ सामान्य
नहीं थीं। लड़के की माँ अभी भी दहशत में थी और लड़की की माँ भी। हालाँकि इन पर जल्द
से जल्द सामान्य हो जाने का दबाव था। फिर भी।
दिन, सप्ताह। समय चीज़ों को डायल्यूट कर देता है।
समय का कार्य ही है सांद्र को तनु करना। लड़का दुकान पर बैठता था। लड़की स्कूल नहीं
जा रही थी। दिख भी नहीं रही थी। लड़के की बहन का स्कूल भी बंद हो गया था। लड़के का
पिता अधिक हरा दिखने लगा था। गहरा हरा। और फिर एक दिन। एक दिन सिंदूरी रंग आँखें
बंद कर मुस्कुराया और हरा रंग परेशान दिखाई दिया। उसकी ज़मीन पर क़ब्ज़ा हो गया था।
क़ब्ज़ा उस आदमी के बेटे ने अपने चाचाओं, भाइयों के साथ मिल कर कर लिया था, जिससे लड़के के पिता ने ज़मीन ख़रीदी थी। जिससे ज़मीन ख़रीदी थी वो मर चुका
था। उसके बेटे का कहना था कि आदिवासी की ज़मीन ख़रीदी नहीं जा सकती। ख़रीदने से पहले
तहसील से अनुमति लेनी होती है। कलेक्टर से भी। और क्या पता बेची भी थी या नहीं। प्रापर्टी
के रेट अब आसमान पर थे। इतने, कि
तालाब के पास का वो टुकड़ा अब सोने का टुकड़ा था। चौबीस कैरेट सोने का टुकड़ा।
गाँव उसीका था, लोग उसीके थे। क़ब्ज़ा
करने में कोई समय नहीं लगा। उसके पास लाठी थी, सो भैंस उसीकी थी। एक रात जब सुबह में बदली तो वो
ज़मीन पर क़ाबिज़ था। हरा रंग हैरान था। आठ दस साल बाद...? अब...? अब
ये आदिवासी वाला मामला सामने आ रहा है। और ये लड़का...? जो हाथ बाँधे खड़ा रहता था कि आपने बड़ा एहसान किया था
मेरे पिता पर। कभी कोई बात ही नहीं हुई ऐसी। मगर क़ब्ज़ा तो हो चुका था। समझाइश,
मध्यस्थता, बीच का रास्ता, चर्चाएँ, वो सब कुछ किया गया जो प्रारंभिक तौर पर किया जाता है। ताकी मामला सुलझ
सके। पुलिस का कहना था कि मामला दीवानी का है तो इसे कचहरी के द्वारा ही सुलझाना
होगा। कचहरी तय करेगी कि कौन सही है और कौन ग़लत। जिसके पक्ष में फैसला आ जाएगा पुलिस
उसे ज़मीन का क़ब्ज़ा दिलवा देगी। मगर तब तक तो पुलिस के हाथ बँधे हुए हैं। तब तक..?
केवल तब तक...?
लड़के के पिता को लगा
कि अब बल का उत्तर बल से देना अनिवार्य है। क़ब्ज़ा वापस लिया जाए उसके बाद कोर्ट कचहरी
की जाए। क्योंकि कम से कम यथास्थिति का तो लाभ मिलेगा। कोर्ट यही कहेगी ना कि जब
तक फैसला नहीं होता यथास्थिति बना कर रखी जाए। आज की स्थिति में तो आदिवासी को लाभ
मिल जाएगा। और फिर कोर्ट में पेशी दर पेशी, साल दर साल। एक पीढ़ी तो शायद इसी प्रकार निकल जाएगी।
उधर गाँव में चर्चा थी कि हरा रंग गाँव पर आक्रमण कर सकता है। आदिवसियों का गाँव
था। वहाँ कोई हरे रंग का नहीं था। वैसे तो आदिवासी किसी भी रंग के नहीं होते हैं।
न सिंदूरी, न हरे ने किसी तीसरे रंग
के। वे अपने ही रंग के होते हैं। मगर सिंदूरी रंग मानता था कि आदिवासी सिंदूरी ही होते
हैं। और वो आदिवासियों को विश्वास भी दिला देता था। जब भी उसको ज़रूरत पड़ती थी।
सो दिला दिया गया। ज़रूरत थी। दोनो की। हरे रंग के पिता ने अपने लोगों को एकत्र
किया और पहुँच गया क़ब्ज़ा लेने। भाई, भाइयों के बेटे और दोस्त। लड़का दुकान पर ही रहा। जीपों
में सवार होकर पहुँच गए ज़मीन पर। ग़फ़लत। कुछ जीपें और पूरा गाँव। इधर ग़फ़लत थी,
उधर तैयारी। हरा पिता भूल गया था कि दो
तीन सप्ताह पहले ही उसका बेटा तीन चार दिन के लिए कहीं ग़ायब हो गया था। वो ग़ायब और
क़ब्ज़े के बीच की कड़ियाँ जोड़ ही नहीं पाया। उसके लिए ये एक सामान्य घटना थी। बीच
के तीन चार हफ़्तों में सब कुछ सामान्य हो चुका था ऐसा उसका मानना था। सब कुछ। हरा
रंग और गाँव दोनो भिड़ गए। भिड़ गए आपस में। गाँव भारी पड़ा। बहुत भारी। कुछ मारे
गए, कुछ भागने में क़ामयाब रहे। लड़के
का पिता, और लड़के के तीनों चाचा
और लड़के के दो चचेरे भाई। कुल छः घटनास्थल पर ही....। बाक़ी के घायल। कुछ गंभीर।
एक चचेरे भाई ने अस्पताल में आकर दम तोड़ा। पुलिस, प्रशासन, पत्रकार, पोलीटिशियन। अब
इन सबका काम शुरू हो चुका था। बाद में। इनका काम बाद में ही शुरू होता है। पहले तो
जैसा कहा गया कि हाथ बँधे थे। तनाव था। गाँव में तो नहीं, पर क़स्बे में तो था ही। हरा रंग उत्तेजित था। लड़का न
दुखी था और न उत्तेजित। वो कुछ भी नहीं महसूस कर पा रहा था। कुछ भी नहीं। लड़का उत्तेजित
नहीं था इसलिए हरा रंग उत्तेजित होकर भी हो नहीं पाया। किसके लिए होता..? स्थिति तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में बनी
रही। पुलिस और प्रशासन द्वारा जारी बयानों के अनुसार। नियंत्रण में बनी रही और नियंत्रण
में कर भी ली गई।
अब तो ख़ैर उस घटना
को दो साल हो गए हैं। इस बीच लड़की की शादी कर दी गई। पोंछ दिया गया स्लेट पर लिखी
इबारत की तरह। पानी पोते से। मोबाइल, मोटर साइकिल, मोरपंख का
सपना देखने वाली लड़की बुझा दी गई। फूँक मार के। बस ये सुना है कि किसी सिंदूरी रंग
के शराबी की जाँघों के बीच पीसी जाती है। पिटती भी है ये सुन सुन कर कि उस क...वे
में कौन से हीरे मोती जड़े थे ? लड़की
को पता है कि कौन से हीरे मोती थे, पर
बता नहीं सकती क्योंकि उन हीरे मोतियों का कोई नाम होता ही कब है? उन्हें तो महसूसा जाता है। उसकी देह पर मोरपंख
की जगह ज़हरीले साँप नाचते हैं। डसते हैं। रात भर। एक भविष्य के शराबी को भी जन
चुकी है। आदिवासी अब पूरी तरह ज़मीन पर क़ाबिज़ है। कुछ हिस्सा एक बार फिर से बेच
चुका है। लड़का उस घटना के बाद ज़मीन को भूल ही चुका है। कभी नहीं गया उस तरफ़। लड़का
बहुत कुछ भूल चुका है। बहुत कुछ। उसके मोबाइल में अब कोई गाने नहीं हैं। न सज्जाद अली,
न रामलीला, न आशिक़ी 2। जाने क्या क्या सुनता रहता है अब वो। दिन भर दुकान पर बैठा रहता है।
मोटर साइकिल अक्सर दिन दिन भर धूल खाती है। कहीं नहीं जाता। आप जब भी उधर से निकलोगे
तो उसे दुकान पर ही बैठा देखोगे। अब उसके गले में काले सफेद चौखाने का गमछा परमानेंट
डला रहता है और सिर पर गोल जालीदार टोपी भी। दाढ़ी बढ़ गई है। बढ़ी ही रहती है। माथे
पर काला निशान हल्का हल्का दिखाई देने लगा है। उसकी आँखें अब उदास नहीं हैं।
बिल्कुल भी नहीं। उसकी आँखें अब हरी हो गईं हैं। बिल्कुल हरी आँखें। हरी-कच्च आँखें।
जिनसे देखने पर उसे सब कुछ लाल दिखाई देत है। गहरा, कत्थई झाँई वाला लाल.....।
(समाप्त)
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