प्रिय गोलू
आज जब यह पत्र तुमको लिख रही हूँ तब मन बहुत उदास है । उदास है रक्षांबधन के एक सप्ताह पहले । इस दिन का कभी कितना इंतजार रहता था । लेकिन आज यही दिन जब देहरी पर खड़ा है तो मन में उदासी छा रही है । तब शायद पांच साल की थी मैं जब तुम्हारा जन्म हुआ था । कितनी उल्लासित थी मैं ? पूरे मोहल्ले को दौड़ दौड़ कर बता आई थी कि मेरा भी भाई आ गया है । इस साल से मैं भी राखी बाधूंगी । बताने का भी एक कारण था । उसके पिछले साल जब राखी आई थी, और मैं सुबह बाहर बैठी अपनी गुड़िया के कपडे बदल रही थी कि तभी पड़ोस में रहने वाली मेरी सहेली चिंकी आ गई थी । खूब सुंदर कपड़े पहनकर, तय्यार होकर आई थी वो । मेरे पूछने पर उसने आंखे मटका मटका कर बताया था कि वो आज अपने भैया को राखी बांधेगी फिर उसको पैसे मिलेंगे चाकलेट मिलेगी । ‘राखी…..?’ मैं दौड़ती हुई अंदर गई थी और मम्मी से लड़ पड़ी थी कि मुझे क्यों नही तैयार किया राखी के लिये । हंसते हुए कहा था माँ ने, ‘तू किसे राखी बांधेगी ? तेरा भाई कहाँ है ?’। उदास सी मैं वापस चली आई थी बाहर। मेरी उदासी देख कर मम्मी ने शाम को पापा के हाथ पर मुझसे राखी बंधवा दी थी, पापा ने मुझे चाकलेट और पैसे भी दिये थे। मैं खुशी खुशी चाकलेट और पैसे चिंकी को दिखाने गई थी । चिंकी ने पूरी बात सुनकर कहा था ‘हट पागल, कहीं पापा को भी राखी बांधी जाती है ? राखी तो भाई को बांधी जाती है ।’ चिंकी की बात सुनकर मेरी सारी खुशी काफूर हो गई थी । उस दिन शायद पहली बार मैंने पीपल के नीचे रखे सिंदूर पुते हुए गोल मटोल पत्थरों से कुछ मांगा था । ‘मुझे भी एक भाई दे दो, राखी बांधने के लिये ।’
और फिर तुम आ गए थे । जैसे ही पापा ने अस्पताल से आकर मुझे कहा था ‘मिनी, तुम्हारा छोटे भाई आया है ।’ मैं खुशी से झूम उठी थी । घर से दौड़ती हुई निकली तो पूरे मोहल्ले में चिल्ला चिल्ला कर बता आई थी कि मेरा भी भाई आ गया है अब मैं भी राखी बांधूगी । उस राखी पर जब मैंने तुम्हारी नाजुक मैदे की लोई समान कलाई पर राखी बांधी थी तो ऐसा लगा था मानो सारे जमाने की खुशियां मुझे मिल गईं हों । तुम्हारी नन्हीं नन्हीं उंगलियों से छुआकर मम्मी ने जो चाकलेट मुझे दी थी वो मैंने कई दिनों तक नहीं खाई थी । स्कूल बैग के पॉकेट मैं वैसे ही रखी रही थी वो। सबको वो चाकलेट इस प्रकार निकाल कर बताती थी मानो कोई ओलम्पिक का मैडल हो । और गर्व से कहती थी ये चाकलेट मेरे भाई ने मुझे दी है, पता है मैंने तो उसके हाथ पर राखी भी बांधी थी । उस एहसास को आज भी याद करती हूँ तो ऐसा लगता है मानो में फिर से उसी उम्र में पहुंच गई हूं । फिर उसके बाद आने वाले रक्षाबंधन, अब तो यूं लगता है जैसे सपनों का कोई सुनहरा अध्याय था जो पढ़ते पढ़ते अचानक समाप्त हो गया । हर साल रक्षाबांधन पर मुझे एक नई ड्रेस मिलती थी । मुझे भी नहीं पता कि रोज उठने के नाम पर नखरे करने वाली मैं, उस दिन सुबह सुबह कैसे उठ जाती थी । मम्मी अभी उठी भी नहीं होती थीं कि मैं पहुंच जाती ‘मुझे मेरी नई ड्रेस दे दो, मैं नहाने जा रही हूँ, गोलू को राखी बांधनी है ।’
‘गोलू‘ ये नाम भी तो मैंने ही रखा था तुम्हारा । गोल मटोल आंखें और गेंद के समान गोल चेहरा देखकर ये नाम रख दिया था ‘गोलू ‘। मम्मी डांटती ‘अभी सुबह से पहन लेगी तो राखी बांधने तक गंदे कर लेगी कपडे’ । मगर मुझे चैन कहां होता था? मेरे लिये तो अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य सामने होता था, गोलू को राखी बांधने का ।
कुछ और साल बीते, मैं भी कुछ बड़ी हुई और तुम भी कुछ बड़े हुए । अब रक्षाबंधन पर मेरा काम ये हो गया कि मैं पहले तुमको राखी बाँधती और फिर तुमको गोद में उठा कर पूरे मोहल्ले का चक्कर लगाने निकल पड़ती । हर पहचान वाले को रोककर कर बताती ‘अंकल देखो मैंने गोलू को राखी बांधी है ।’ हाँ पीपल के नीचे रखे उन गोल मटोल पत्थरों के पास जाना कभी नहीं भूलती थी । कई बार मम्मी से पूछा कि मम्मी ये पीपल के नीचे कौन से भगवान हैं, पर उन्हें भी नहीं पता था । इसमें मुझे ये परेशानी आती थी कि जब पीपल के पास जाकर हाथ जोड़ती तो ये समझ में नहीं आता था कि कौन से भगवान का नाम लूं । पीपल के चबूतरे पर तुमको बैठा कर जब में हाथ जोड़ती तो तुम गोल गोल आंखों से मुझे टुकुर टुकुर ताकते रहते ।
फिर हम कुछ और बडे हुए । और अब हममें झगड़े शुरू हो गए । तुम्हें शुरू से ही केवल वो ही चीजें खेलने के लिए चाहिये होती थीं जो मेरी होती थीं । जब तक तुम छोटे वे तब तक तो में खुद ही अपनी चीजें तुमको खेलने को दे देती थी लेकिन जब तुम बडे होने लगे और मेरी चीजों के लिये जिद करने लगे तो में भी जिद्दी होने लगी । मम्मी का ये कहना मुझे बिल्कुल नहीं पसंद आता था ‘दे दे मिनी, तू बड़ी है वो छोटा है’ । ‘छोटा है तो क्या, मैं नहीं देने वाली अपनी चीजें।’
मेरी वो मन पसंद गुडिया जो पापा ने मुझे दिल्ली से लाकर दी थी । उस दिन जब स्कूल से लौटी तो देखा कि उसके घने सुनहरे बाल किसी ने बेदर्दी से इस प्रकार काटे हैं कि अब सर पर घांस फूस की तरह एक गुच्छा बचा है। करने वाले तुम ही थे । बहुत रोई थी मैं, तुमको अकेले में एक मुक्का भी मारा था । बहुत दिनों तक सोचती रही कि जैसे इंसानों के बाल कटने के बाद फिर बढ़ जाते हैं उसी प्रकार गुड़िया के भी बढ़ जाएंगे मम्मी की नजर बचा कर उसके सर में तेल की मालिश भी करती रही, पर बालों को नहीं बढ़ना था सो नही बढे ।
समय बीतता रहा और हम बढ़ते रहे । इस बढने के साथ ये भी होता रहा कि तुम्हारे और मेरे के झगड़े भी बढ़ते रहे । बीच में पिसती रहीं मम्मी । मैं कहती कि तम गोलू का पक्ष लेती हो और तुम कहते कि तुम दीदी की तरफदारी करती हो । तब कहाँ पता था मुझे कि माँ तो सुलह का पुल होती है वो पक्षपात कभी नहीं करती । मां ‘तरफ’ कभी नहीं होती, माँ तो परिवार नाम के वृत्त का केन्द्र होती है। परिधि पर खडे परिजनो में हरेक को यही लगता है कि मां उससे कुछ दूर है तथा दूसरे के कुछ पास है किन्तु केन्द्र ऐसा कब होता है यदि वो किसी के दूर और किसी के पास होगा तो केन्द्र कहाँ रहेगा ।
फिर और समय बीता, मैं कॉलेज पहुंची और पापा ने मुझे कॉलेज आने जाने के लिये मोपेड दिलवा दी । तुम्हारी नजर उस पर भी रहने लगी । जैसे ही मैं कॉलेज से आती तुम मम्मी से जिद करने लगते कि मुझे मैदान का एक चक्कर लगाने के लिये गाड़ी चाहिए । हार कर मुझे चाबी देनी पड़ती और फिर कभी तुम इण्डीकेटर तोड लाते, तो कभी एक के बजाय चार पांच चक्कर लगा कर उसका पूरा पेट्रोल खत्म करके चुपचाप उसे लाकर खडी क़र देते । फिर मैं हंगामा मचाती और जोर शोर से झगड़ा होता ।
कॉलेज की मेरी पढाई खत्म होने को थी जब तुम कॉलेज में पहुचे थे । उस समय तक हमारे झगड़ो की जगह अबोले ने ले ली थी अब हम झगडते नही थे बल्कि एक दूसरे से बोलना बंद कर देते थे । कई बार दो दो, तीन तीन महीनों तक नहीं बोलते थे ।
अब जब ये रक्षाबांधन आया है तब भी वही स्थिति है, हममें बोलचाल बंद है । मेरी उदासी का कारण ये नहीं है बल्कि ये है कि इस घर में मेरा ये आखिरी सावन है, दिसम्बर में मैं विदा हो जाऊंगी यहां से । विदा हो जाऊंगी घर से, मम्मी से, पापा से, तुमसे, पीपल से और सबसे । चली जाऊंगी एक अन्जाने देश कुछ अन्जाने लोगों के बीच । बहुत सारी यादें साथ ले जाऊंगी और बहुत सी छोड़ जाऊंगी । यादें उस पहले रक्षा बंधन की, यादें उस पहली चाकलेट की ।
जब से मेरी शादी की तारीख पक्की हुई है तब से मैं एक बोझिल उदासी को घर में सांस लेते देख रही हूँ । पापा इन दिनों मेरा बहुत खयाल रखने लगे हैं । और मम्मी ….। उनको तो जाने क्या हो गया है । चुपचाप कभी किचिन में तो कभी बरामदे में बैठी रोती रहती हैं । कुछ पूछती हूं तो कुछ भी नहीं बोलतीं, बस पानी भरी आंखों से मुझे देखती रहती हैं। उस दिन जब शाम को घर आई तो देखा मम्मी और पापा बरामदे में ही बैठे हैं । मम्मी की आंखें आंसुओ से भरी हैं । पापा की आंखे भी गीली हैं । मैं जैसे ही पास पहुंची पापा मुझे सीने से लगा कर फूट फूट कर रो पडे । पहली बार देखा पापा को रोते, वो भी इस तरह ।
गोलू, सब कुछ छूट रहा है मेरा यहीं। अब टीवी के रिमोट कंट्रोल पर तुम्हारा ही कब्जा रहेगा । मेरी पढ़ने की टेबिल जिसको लेकर हमेशा ही तुम्हारे साथ मेरा झगड़ा हुआ अब वो तुम्हारी हो जाएगी । टेबल की दराज में मेरा कुछ सामान रखा है उसे वैसे ही रखे रहने देना । उसमें मेरी वो गुड़िया भी है जिसके बाल तुमने काट दिये थे । पहली राखी पर तुमने जो चाकलेट दी थी उसका रैपर भी वहीं रखा है, एक माचिस की डिबिया में बंद । एक फोटो भी है जो शायद दूसरी या तीसरी राखी पर खिंचवाया था तुमको राखी बांधने के बाद । और ऐसा ही बहुत सामान है । उसे मत हटाना, जब कभी आऊंगी तो इनको देखकर याद ताजा कर लिया करूंगी । जब तुम्हारी शादी हो जायेगी और तुम्हारी बिटिया होगी तो ये बाल कटी गुडिया उसको दूंगी और कहूंगी ‘ये है तेरे शैतान बाप की करतूत….. ।’
गोलू, पढ़ती आई हूँ कि शादी के बाद लड़की का पूरा जीवन बदल जाता है, मेरा क्या होना है नहीं जानती । आने वाला जीवन कुहासे में ढंका है, पास जाऊंगी तब ही पता चलेगा वहाँ क्या है । पर तुम्हारे साथ, मम्मी पापा के साथ, इस घर में बिताये जीवन की बहुत अच्छी यादें मेरे साथ हैं । इन यादों का आधार ही मेरे उस जीवन का सम्बल होगा । और ये यकीन तो है ही कि दुख में, परेशानी में, मेरा वो कल का नन्हा गोल मटोल गोलू मेरे साथ होगा । मेरी इच्छा है कि ये रक्षाबंधन हम उसी प्रकार मनाएँ जैसे बचपन में मनाते थे दिन भर धींगा मस्ती करते हुए । अबोला होने के कारण पत्र लिख रही हूँ । कोई दूसरी लड़की तुम्हें पत्र लिखती तो उसे प्रेम पत्र कहते, लेकिन ये तुम्हारी बहन लिख रही है इसलिये ये नेह पत्र है । रक्षाबँधन का नेह पत्र-मिनी का गोलू के नाम ।
– तुम्हारी दीदी-मिनी
(कहानी नेह पत्र, पंकज सुबीर, दैनिक भास्कर मधुरिमा में प्रकाशित)