पूर्णिमा का पूरा चांद प्रकृति के साथ अपनी चांदनी के रंगों से होली खेल रहा है । पीली ज़र्द चांदनी पेड़ों पर, पहाड़ों पर, हर तरफ बरस रही है । ये भी अपने ही तरह की एक होली है, चंद्रमा और पृथ्वी की होली । क्या आकर्षण है पृथ्वी में, जो ये चंद्रमा न जाने कितने युगों से इसकी परिक्रमा कर रहा है । रूप बदल बदल कर पृथ्वी को आकर्षित करने का प्रयास करता है । कभी छिप जाता है कभी पूर्ण आकार में सामने आ जाता है । पृथ्वी कितने युगों से परीक्षा ले रही है अपने इस मूक प्रेमी की ।
''सुषमा क्या देख रही हो इस तरह आसमान में ?'' पडोस की बालकनी से स्वर आया तो सुषमा की तंद्रा टूटी ।
''कुछ नहीं भाभी, आज चाँद बहुत सुंदर लग रहा है'' सुषमा ने पड़ोस में रहने वाली मंजुला भाभी को उत्तर दिया ।
''वो तो लगेगा ही आज पूर्णिमा जो है, और वो भी फागुन की पूर्णिमा । दो ही तो पूर्णिमाएं होती है जब चांद सुंदर हो जाता है एक शरद की पूर्णिमा दूसरी फागुन की पूर्णिमा'' मंजुला भाभी स्थानीय कालेज में हिंदी साहित्य पढ़ाती हैं, उनकी बातों में भी साहित्य का पुट नार आता है । हिन्दी साहित्य से हमेशा लगाव रहा है सुषमा को, इसीलिए मंजुला भाभी से उसकी खूब पटती है ।
''और पता है ऐसा क्यों होता है ? इसलिए, क्योंकि ये संधिकाल होते हैं। शरद ऋतु संधिकाल है वर्षा और ठंड का तो फागुन संधिकाल है गरमी और ठंड का । संधिकाल हमेशा से ही मोहक होता है, चाहे वो ऋतुओं का हो या फिर उम्र का हो ।'' मंजुला भाभी ने अपनी बात को और बढ़ाते हुए कहा ।
''बच्चे तो पढ़ रहे होंगे '' सुषमा ने उत्तर में कहा ।
''आज.........! और पढ़ाई ......! कल होली है, आज तो उनकी धींगामस्ती की रात है। छोटे वाले देवर के बच्चे भी आए गए हैं, अभी तो कॉलोनी की होलिका दहन वाली जगह पर गए हैं, कह रहे थे इस बार शहर की उत्सव समिति ने सबसे अच्छी तरह से सजाई हुई होली को पुरुस्कार देने का कहा है । शाम से ही लगे हैं सजाने में, जाने क्या क्या निकाल कर ले जा रहे हैं घर से चुपचाप-चुपचाप।'' हंसते हुए कहा मंजुला भाभी ने ।
''अरे.....! पर चार दिन बाद तो बच्चों के पेपर हैं ना....?'' सुषमा ने आश्चर्य से पूछा ।
''हां है, तो ....? बच्चों ने उसकी भी तैयारी पूरी कर रखी है । और फिर होली के लिए तो मैंने बस आज शाम से कल शाम तक की छुट्टी दी है । कल रात से फिर पढ़ाई में जुट जाऐंगे ।'' मंजुला भाभी ने उत्तर दिया ।
''पर भाभी मेन एगाम है, अभी आपको ऐसा नहीं करना था, एक साल होली नहीं भी मनाते तो क्या हो जाता'' सुषमा का आश्चर्य कम नहीं हुआ था ।
''तुमने वो शेर सुना है सुषमा 'बच्चों के छोटे हाथों को चांद सितारे छूने दो, चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे ।' बात इस साल या उस साल की नहीं है बात उम्र की है । होलियां तो बहुत आएँगी पर ये उम्र फिर नहीं आएगी । और फिर तुम याद करके तो देखो कि तुम्हारी स्मृति में कौन सी होली आज तक सुरक्षित है । वही ना जो तुमने स्कूल के दिनों में सहेलियों के साथ मनाई थी । वो धींगामस्ती, वो अल्हड़पन आज भी गुदगुदा जाता होगा तुम्हें ।'' मंजुला भाभी ने हंसते हुए कहा।
''अरे हमारी तो पूछो ही मत भाभी । मुहल्ले में दस बारह लड़कियों की हमारी टोली थी । और होली तो हमारे सर पर ऐसी चढ़ती थी कि मुहल्ले के लड़के भी घबरा कर भागते थे । शाम को जब माँ रंग छुड़ाने बैठतीं तो पूरे समय उनके प्रवचन चलते रहते थे ।'' हंसते हुए कहा सुषमा ने ।
''वही तो..... बात तो वही है। जब हमारा समय था तब हमने तो खूब आनंद उठा लिया, पर आज जब बच्चों की बारी है तो हम उनको रोक रहे हैं । हम स्वार्थी तो नहीं हो गए हैं ।'' गंभीरता के साथ कहा मंजुला भाभी ने ।
''पर आज जो काम्पटीशन है .........'' कुछ उलझन भरे अंदाज मे बात को बीच में ही छोड़ दिया सुषमा ने ।
''हाँ है ना, वो तो हमेशा रहा है और आगे भी रहेगा । मैं उसे भी खारिज थोड़े ही कर रही हूँ । आज बच्चे रात बारह बजे के आस पास होली जला कर वापस आ जाएँगे । सुबह जब पढ़ने उठते हैं तभी उठेंगे, पढ़ाई करने के बाद दस बजे से चार बजे तक का समय होली का है । वो भी सूखे और खुशबूदार रंगों से होली । उसकी भी मैंने तैयारी करके रखी है । हल्दी, चंदन का लेप, अच्छी सुंगधित गुलाल सब मंगा कर रखी है । घर के आंगन में खूब मस्ती करो, दोस्तों को भी बुला लो ।'' मंजुला भाभी ने कहा । सुषमा ने कुछ उत्तर नहीं दिया, उसके दिमाग में थोड़ी देर पहले राहुल द्वारा की जा रही मिन्नतें याद आ रही थीं ।
''प्लीा मम्मी मैंने आज की पढ़ाई तो पूरी कर ही ली है । कल रिवीजन कर लूंगा, जाने दो ना प्लीज । प्रॉमिस मैं ग्यारह बजे तक ही वापस आ जाऊँगा ।'' गिड़गिड़ाते हुए कहा था राहुल ने ।
''नहीं बिल्कुल नहीं, पढ़ाई को तमाशा समझ रखा है क्या । एक साल होली पर नहीं जाओगे तो कुछ नहीं हो जाएगा अगले साल चले जाना ।'' झिड़कते हुए तेज स्वर में कहा था सुषमा ने ।
''अगले साल तो बोर्ड है मम्मी, अगले साल तो मैं खुद ही नहीं जाऊँगा, प्लीज इस बार जाने दो ना'' रूऑंसे से स्वर में कहा था राहुल ने ।
''नहीं का मतलब नहीं, उसमें जिद करने की क्या बात है । तुम्हारे भले के लिए ही तो कह रही हूँ । तुम पढ़ लोगे तो तुम्हारी ही जिंदगी बन जाएगी हमारी नहीं समझे'' और तो स्वर में डाँटते हुए कहा था सुषमा ने ।
''सब बच्चे जा रहे हैं मम्मी , लड़कियाँ भी हैं, रंगोली सजा रही हैं होली के आसपास । मेरे सारे दोस्त भी तो आए हैं ।'' राहुल की आंखों में आंसू आ गए थे ।
''सब बेवकूफ हैं तो तुम भी हो जाओ, बाकियों से तुमको क्या लेना । तुमको कैरियर बनाना है तो पढ़ना तो तुमको ही पढेग़ा ना ।'' सुषमा ने निर्णायक रूप से झिड़का था । राहुल चुपचाप अपने कमरे में चला गया था । उसे पता था कि अब कुछ नहीं होने वाला ।
''क्या हो गया ? क्या सोचने लगी'' मंजुला भाभी के स्वर ने फिर सुषमा को वर्तमान में खींच लिया ।
''कुछ नहीं भाभी बस वही सोच रही थी कि त्यौहार पर्व सब धीरे धीरे खत्म होते जा रहे हैं।'' सुषमा ने बात बदलते हुए कहा ।
''खत्म हो नहीं रहे है, बल्कि हम ही कर रहे हैं । ये पर्व ये त्यौहार तो वास्तव में जीवन की एकरसता को तोड़ने के लिए आते हैं । जब हमको लगता है कि जीवन एक ढर्रे पर आ गया है तब ये पर्व आकर हमें परिवर्तन दे जाते हैं , उल्लास दे जाते हैं और आगे पुन: काम करने की ऊर्जा दे जाते हैं । बात उल्लास की हो तो है । हम अपने मोबाइल की, लेपटाप की सबकी बैटरी को समय पर चार्ज करते हैं, पर अपने अंदर की बैटरी का कभी नहीं सोचते कि वो कबसे डिस्चार्ज पड़ी है । ये पर्व, थे पिकनिकें, ये आउटिंग, ये अपने को रीचार्ज करने का ही तो तरीका है । और इन बच्चों को तो यादा जरूरत है रीचार्ज होने की ।'' समझाइश के अंदाज में कहा मंजुला भाभी ने । सुषमा कुछ नहीं बोली, उसे याद आ रहा था बचपन, जब उस छोटे से कस्बे का वो मोहल्ला होली, दीवाली के आते ही कैसा खिल उठता था ।
''अरी लड़कियों जरा भी शऊर नहीं है तुममें । लाला जी क्या तुम्हारी उम्र के हैं जो उन पर रंग डाल दिया, इत्ती बडी बड़ी हो गई हैं पर अकल रत्ती भर नहीं है । पूरा मोहल्ला सर पर उठा रखा है चार दिनों से ।'' छत पर खड़ी माँ तेज तेज स्वर में चिल्लाती थीं जब उन लोगों को किसी पर रंग डालते देखतीं । इधर मां चिल्लातीं और उधर खी खी करती पूरी टोली गायब हो जाती और किसी कोने में दुबक कर शिकार की तलाश करने लगती ।
शाम को नहा धोकर सजी धजी प्लेटें लेकर मोहल्ले के घरों में होली की मिठाई पहुंचाने का जो काम शुरू होता तो रात तक चलता रहा । गुझियों, बेसन की बरफी, सेव, मठरियों से भरी प्लेटें जिन पर क्रोशिए की जाली से बने रुमाल ढंके रहते । उसके बाद दो तीन दिनों तक सहेलियों में होली की बातें चलतीं किस पर चुपके से रंग डाल दिया था, किस के बालों में चुपचाप से गुलाल भर दिया था, बातें कर करके आनंद लिया जाता था ।
''क्या हो गया भई कहां खो गई फिर से'' मंजुला भाभी ने कहा।
''कुछ नहीं भाभी बस आपकी ही बातों पर विचार कर रही थी ।'' सुषमा ने उत्तर दिया ।
''देखो सुषमा रोकने से कुछ नहीं होगा । हां थोड़ा बदलाव लाने से होगा । मैंने भी तो वही किया है । पक्के रंग और बाहर जाने, दोनों पर रोक लगा दी है, लेकिन घर में सारी व्यवस्था की हैं । आज भी केवल बारह बजे तक की मोहलत दी है । उसके बाद घर वापस । तुम भी वही करो, यूं रोकने से काम नहीं चलेगा, ये उनकी उम्र का संधिकाल है उनको आनंद लेने दो इसका, ये संधिकाल फिर नहीं लौट के आने का उनके जीवन में । बड़े होने के बाद जो होलियाँ तुम्हारे जीवन में आईं वो तुमको याद नहीं पर वो आज तक याद है जो संधिकाल की होली थी ।'' मुस्कुराते हुए कहा मंजुला भाभी ने ।
''मैं .....।'' अटकते हुए कहा सुषमा ने ।
''हां तुम, मुझे पता है तुमने राहुल को रोक दिया है, जाओ उसे अपने हिस्से का आंनद बटोरने दो, जीने दो अपने जीवन के संधिकाल को । ताकि तुम्हारी तरह उसकी भी स्मृतियों की पुस्तक में ये अध्याय अंकित हो जाएँ।'' कहते हुए मंजुला भाभी अंदर चली गई ।
सुषमा अंदर आई तो देखा एक पोलीथीन के बैग में कुछ सजावट का सामान रखा हुआ है । शायद राहुल अपनी तरफ से होली सजाने के लिए लाया है ।
''राहुल.....।'' उसने आवाज़ लगाई । आवाज़ सुनकर राहुल कमरे से निकल कर आया ।
''ठीक है जाओ, मगर बारह बजे से पहले मंजुला भाभी के बच्चों के साथ वापस आ जाना, और इस घरघुस्सी को भी ले जाओ, वहाँ कॉलोनी की लड़कियाँ रंगोली बना रही हैं और ये यहाँ टीवी देख रही है । थोडी देर बाद मैं आऊँगी मंजुला भाभी के साथ होली की पूजा करने, तब ले आऊँगी इसे वापस ।'' सुषमा ने कहा । राहुल ने झपटते हुए सुषमा के हाथ से बैग छीना और अंदर की तरफ दौड ग़या, थोड़ी ही देर में अंदर टीवी बंद हो गया । बंद होते ही छोटी की आवाज आई ''मम्मी....'' और फिर अंदर से लडने झगड़ने के स्वर आने लगे । सुषमा हंसती हुए किचिन में चली गई, उसे कल की तैयारियां जो करनी थीं ।
संधिकाल ( होली पर विशेष कहानी : पंकज सुबीर )
मुठ्ठी भर उजास
दूर गहरे सिंदूरी रंग का सूरज क्षितिज की रेखा को छू रहा है ,ओर इसी सिंदूरी सूरज के सामने से कभी कभी घर लौटते हुए हुए परिंदो का कोई झुंड उड़ता हुआ निकलता है तो एसा लगता है मानो एक बड़े सिंदूरी से मेज़पोश पर किसी ने परिंदों की आकृतियाँ काढ़ दी हैं । पूरा आसमान किसी बच्चे द्वारा कैनवास पर ब्रश और रंग से कुछ बपापे के प्रयास में किये गए प्रयोगों के समान नज़र आ रहा है । दिन का सबसे खूबसूरत हिस्सा शाम ,एक और शाम अपने भरपूर यौवन के रंग बिखेरती हुई गुज़र रही है । मुंडेर पर दोनों कुहनियों की टेक लगाए खड़ा अखिलेश एक टक दूर क्षितिज पर धीरे धीरे अस्त हो रहे सूरज को देख रहा है ।
आहिस्ता आहिस्ता सूरज क्षितिज की सीमा रेखा के नीचे उतर गया ,सूरज के अस्त होते ही अखिलेश ने एक ठंडी सांस छोड़ी ,और धीरे धीरे चलता हुआ छत के दूसरी तरफ आ गया । छत के इस कोने से विनीता के घर का पूरा ऑंगन साफ दिखाई देता है ,आंगन में ख़ामोशी और उदासी बिछी हुई है ,मानो समय का कोई क्षण आंगन की देहरी पार ना कर पाया हो और वहीं ठहर कर रह गया हो । उतरती सांझ के झुटपुटे में डूबा है पूरा आंगन ।
अखिलेश ने उस सूने से आंगन से छत को जोड़ने वाली सीढ़ियों को देखा ,यूं लगा अभी बंदरों की तरह कूदती फांदती बिन्नी सीढ़ियों से चढ़कर ऊपर आ जाएगी ,बालों में ढेर सारा तेल चुपड़े और उन्हें कस कर दो दो लाल रिबनों से बांधे ,ऑंखों में ढेर सा काजल लगाए और बैंगनी फूलों वाली फ्राक पहने हुए । आते ही कहेगी ''चल अक्कू चपेटे खेलें'' और वो प्रतिरोध करेगा '' चल हट्ट..... मैं कोई लड़की हूँ क्या ? '' ,उसके इतना कहते ही बिन्नी की ऑंखों से दो मोटे मोटे आंसू ढलक पड़ेंगे ,और कुछ ही देर बाद छत की पानी की टंकी के पास वो दोनों चपेटे खेलते नज़र आऐंगे । अखिलेश ने टंकी के पास के कोने पर नज़र डाली ,वहां पर भी एक मौन पसरा हुआ है ,मानो किसी अद्भुत शोक गीत की समाप्ति के बाद का सन्नाटा फैला हो । आहिस्ता आहिस्ता सीढ़ियां उतरता हुआ अखिलेश नीचे आ गया ।
घर में आया तो देखा वहाँ भी एक अजीब तरह की उदासी वातावरण में घुली है ,हवा तक थके पांवों से बोझिल-बोझिल चल रही है ।
'' कहाँ चला गया था .......?'' अखिलेश को चुपचाप आते हुए देखा तो मां ने पूछा ।
'' कहीं नहीं छत पर खड़ा था '' अखिलेश ने नज़रें चुराते हुए जवाब दिया ।
छत का सुनते ही सब्ज़ी काटते मां के हाथ एक पल को कांप गए । अखिलेश ने देखा तो चुपचाप अपने कमरे की तरफ चला गया । कमरे में चारों तरफ़ बिन्नी मौजूद है । टेबल पर रखा बिन्नी के हाथों बना रूई का गदबदा सा जोकर और दीवार पर टंगी ढलते सूरज की पेंटिंग जिसके एक कोने पर बिन्नी लिखा है , सब के सब अपनी सृजनकर्ता के इंतज़ार में स्तब्ध से लग रहे हैं । अखिलेश कुछ देर तक तो सब को देखता रहा ,फिर अचानक ही उसके अंदर का बाँध टूट गया ,वह पलंग पर गिर गया और फूट फूट कर रोने लगा ।
''अक्कू .... नहीं बेटा इस तरह कमज़ोर होने से कुछ नहीं होगा ''अखिलेश के सर पर हाथ फेरते हुए मां ने कहा जो अखिलेश की तेज़ सिसकियों की आवाज़ सुनकर सब्ज़ी काटना छोड़ कर दौड़ती हुई आ गईं थीं।
'' नहीं बेटा अब तो उसके बिना जीने की आदत डालनी पड़गी '' कहते हुए मां ने उसका सर उठा कर अपनी गोद में रख लिया ,मां की गोद में सर रखते ही अखिलेश फफक फफक कर रो पड़ा । मां कभी उसकी पीठ सहलाती ,कभी सर , और बीच में चुपके से आंचल से अपने आंसू भी पोंछ लेती ।
'' मां ...बिन्नी चली गई ...'' रोते रोते टूटती सी आवाज़ में अखिलेश ने कहा ।
अखिलेश और बिन्नी की कहानी तब से ही शुरु होती है जबसे उनका जीवन शुरू होता है। दोनों के घर बिल्कुल लगे होने से ,और छतें एक होने से दोनों परिवारों में शुरू से ही अच्छी मित्रता रही । लगभग हम उम्र होने के कारण दोनों का जीवन क्रम भी एक सा ही चला ,दोनों ने एक साथ ही स्कूल जाना शुरु किया ,तो यह सिलसिला कालेज तक चलता रहा , टूटा तो केवल बिन्नी के चले जाने से ।
इस कहानी में अगर प्रेम के तत्वों की खोज की जाए ,मसलन पीली पीली चाँदनी से भरी रातें ,गुलमोहर के फूलों से लदे हुए पेड़ों के बीच से गुज़रती पगडंडियाँ ,और ऑंखों ही ऑंखों में होने वाली ख़ामोश सी बातें , तो ऐसा कुछ नहीं मिलेगा। बिन्नी के चले जाने तक भी दोनों को यह पता नहीं चल पाया था कि उनका आपस में रिश्ता क्या है ?
गुलमोहर का फूल उन दोनों के लिए प्रेम का प्रतीक ना होकर बॉटनी का प्रेक्टिकल होता था ,और वही गुलमोहर का फूल ,चर्चा से बहस और फिर बहस से अच्छे खासे युध्द का कारण बन जाता था। जब छोटे थे तब बाकायदा गुत्थम गुत्था होकर लड़ते थे ,चपेटे की बेईमानी या दूसरी किसी बात पर शुरु हुई लड़ाई ,हाथा पाई में बदल जाती ,और पता चलता इसके हाथ में उसकी चोटियाँ हैं ,तो उसके हाथ में इसके बाल। वही रिश्ता बाद में भी बना रहा ,अंतर केवल इतना हुआ था कि हाथापाई की जगह जुबानी युध्द होने लगा था।
घर में आकर अखिलेश गुस्से में किताबें टेबिल पर फैंकता ,और माँ पूछतीं '' आज किस बात पर लड़ाई हुई '' जवाब पड़ोस के ऑंगन से बिन्नी का आता '' चाची साइंस पढ़ना हर किसी के बस की बात नही , यहां रटने से काम नही चलता , सब पता होना चाहीए ।''
पिछले साल वैलेन्टाइन डे पर रुई का गदबदा जोकर बनाकर लाई थी बिन्नी ,सुर्ख लाल रंग का जोकर जिसके सर पर पीली फूलदार टोपी लगी थी ,और सीने पर एक छोटा सा दिल जिस पर ''अक्कू '' लिखा था। सुबह सुबह वह सो ही रहा था ,जब शोर शराबा करते हुए बिन्नी जोकर को लेकर उसके कमरे मे घुसी । उसे झंझोड़कर उठा दिया ,और उसके उठते ही हाथों में जोकर देकर बोली '' हैप्पी वेलेन्टाइन डे '' कुछ आश्चर्य से कहा था अखिलेश ने ''मुझे .....? ''
''नहीं तो क्या दीवार से कह रही हूँ , इत्ती मेहनत से तुम्हारा पुतला बनाया है ,उसको तो देखो , '' गुस्से में बोली थी बिन्नी ।
'' समझती भी हो यह वेलेन्टाइन डे क्या होता है '' अखिलेश ने उसकी तरफ़ देखते हुए पूछा था ।
'' में समझती हूँ ,तुम नहीं समझते '' फिर अखिलेश के सिर पर हाथ रखते हुए बोली '' तुम्हारा ये ऊपर का माला खाली जो पड़ा है क्या समझोगे ''।
'' अच्छा तुम क्या समझती हो '' मुस्कुरा कर तकिये को गोद में रखते हुए कहा था अखिलेश ने ।
''जो रिश्ता नाम की सीमाओं से ऊपर उठ गया हो ,जिसके लिए कोई नाम नहीं सूझ रहा हो ,उस रिश्ते को एक नाम देने का दिन है । या कोई हो ,जो आपका दोस्त हो ,जो आपके साथ हो ,जो ना आपका रिश्तेदार हो ,ना प्रेमी हो ,ना और कुछ हो । एक रिश्ता जो आपके जीवन में उस तरह से फैला हो ,जैसे वादियों में कोहरे की चादर फैली होती है ,जिसके होने का अहसास तो किया जा सके पर जिसे छुआ नहीं जा सके '' कहते कहते बिन्नी की दोनो ऑंखो में दो सितारे चमक गए थे ,अखिलेश चुपचाप उसकी तरफ देखता रहा ।
'' तुमने गुनाहों का देवता पढ़ा है ..?'' कुछ उत्सुकता से पूछा था बिन्नी ने ।
अखिलेश के इन्कार में सर हिलाने पर बोली '' फिर तुम क्या समझोगे ,कोई होता है ,जिससे आप सारी बातें कर सकते हैं ,और.......।'' कह कर रुक गई थी बिन्नी ।
''और क्या...?'' अखिलेश ने उत्सुकता से पूछा था।
'' और जिससे यह भी कहा जा सके '' कह कर बिन्नी फिर चुप हो गई थी ।
''क्या ...?'' फिर से पूछा था अखिलेश ने ।
''यह कि गुलमोहर के फूल की पाँचवी पंखुड़ी के बारे में तुम्हारा बॉटनीकल नालेज बिलकुल गलत है बेवकूफ कहीं के '' कह कर हंसती हुई उठ कर चली गई थी बिन्नी , हाथों में जोकर को थामे देर तक बैठा रहा था वो।
सेमेस्टर एग्ज़ाम के बीच में ही बिन्नी की तबीयत खराब हो गई थी । यहां के डाक्टरों को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि बीमारी क्या है । जब बिन्नी के घर वालों ने उसे मुंबई इलाज के लिए ले जाने की तैयारी की ,तो अखिलेश ने भी अपनी तैयारी कर ली थी ,लेकिन बिन्नी ने ही उसे रोक दिया था ,यह कहकर कि तुम सेमेस्टर देकर आ जाना ,अपना साल मत खराब करो । बिन्नी को लेकर जब ट्रेन धीरे धीरे प्लेटफार्म से आगे बढ़ी थी ,तब उसने बिन्नी की ऑंखों में वही मोटे मोटे आंसू देखे थे ,जैसे बचपन में होते थे । वो दो बूंद आंसू उसे अंदर तक चीर गए थे।
अखिलेश आख़िरी पेपर देकर घर लौटा तो बिन्नी के घर लगी भीड़ ने उसके पैरों को बाँध दिया था । बिन्नी वापस आ चुकी थी ,लेकिन जा चुकी थी । एक रोज़ पहले ही मुंबई में बिन्नी की सांसें थम गई थीं ,लेकिन अखिलेश का आखिरी पेपर होने के कारण उसको ये खबर घर वालों ने नहीं दी थी । कहते हैं किसी के चले जाने के बाद पता चलता है ,कि वो आपके लिए क्या था ,बिन्नी के जाने के बाद अखिलेश को उस रिश्ते का अहसास हुआ । बिन्नी के जाने के बाद पत्थर हो गया अखिलेश ,एक बार भी फूटफूट कर नहीं रोया ,मानो अंदर से ऑंसुओं का सोता ही सूख गया हो । बिन्नी को गए भी दो महीने हो गए ,उसके जाने के बाद पहला वेलेन्टाइन डे है ,पिछले वर्ष की स्मृतियों के कारण अखिलेश सुबह से ही उदास था और आठ नौ माह का रुका हुआ दर्द अब ऑंसुओं के रूप में फूट कर बह रहा है ।
मां ने देखा अखिलेश का रोना कम हुआ है तो बोलीं '' चल मुंह धो ले , मैं चाय बना लाती हूँ '' अखिलेश आंसू पोंछता हुआ उठ गया ,मां भी चली गयीं । बोझिल कदमों से चलता हुआ अखिलेश टेबिल के पास आया ,देखा जोकर हाथों को खोले मुस्कुरा रहा है उसने जोकर को हाथों में उठाया और उसे लेकर ऑंगन में आ गया ,बाहर फरवरी की गुलाबी रात बिखरी हुई है । जोकर को लेकर वो छत पर चला गया ,आसमान टिमटिमाते हुए छोटे बड़े सितारों से भरा है ,और उनके बीच खिला हुआ है चाँद ,अखिलेश ने जोकर को सीने में भींच लिया और आसमान की और मुंह करके धीरे से बोला '' हैप्पी वेलेन्टाइन डे बिन्नी '' उसने देखा उसके कहते ही दूर कोने में एक छोटा सा सितारा अचानक ज़ोर से झिलमिला उठा है ,ठीक उसी तरह जिस तरह से बिन्नी की ऑंखों में दो सितारे झिलमिला गए थे पिछले बरस ,आज ही के दिन ।
-समाप्त-